________________ चरत्थाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा चतुर्थ से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक छब्बीसवें शतक के क्रम से चौथे से ग्यारहवे उद्देशक तक की प्ररूपणा 1. एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इहं पि जाव अचरिमो उद्देसो, नवरं प्रणंतरा चत्तारि वि एक्कगमगा। परंपरा चत्तारि वि एक्कगमएणं / एवं चरिमा वि, अचरिमा वि एवं चेव, नवरं अलेस्सो केवली प्रजोगी य भण्णति / सेसं तहेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / एते एक्कारस उद्देसगा। ॥तीसइमे सए : चउत्थाइ-एक्कारस-पज्जता उद्देसगा समता // 30 / 4-11 // ॥तीसइमं समवसरणसयं समत्तं // 30 // [1] इसी प्रकार और इसी क्रम से बन्धीशतक में उद्देशकों की जो परिपाटी है, वही परिपाटी यहाँ भी यावत् अचरम उद्देशक पर्यन्त समझनी चाहिए। विशेष यह है कि 'अनन्तर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एक गम (समान पाठ) वाले हैं ? 'परम्पर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एक गम वाले हैं। इसी प्रकार 'चरम' और 'अचरम' विशेषणयुक्त उद्देशकों के विषय में भी समझना चाहिए, किन्त अलेश्यी. केवली और अयोगी का कथन यहाँ (अचरम उद्देशक में) नहीं करना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हुए। विवेचन-जो जीव अचरम हैं, वे अलेश्यी, अयोगी या केवलीज्ञानी नहीं हो सकते, इसलिए अचरम उद्देशक में इनका कथन नहीं करना चाहिए।' ॥तीसवाँ शतक : चौथे से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त / // तीसवाँ समवसरण-शतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 148 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, 3633 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org