________________ (আগ্রাসঙ্গি विवेचन----आहारक कौन, अनाहारक कौन? पुलाक से लेकर निर्गन्थ तक मुनियों के विग्रहगति आदि अनाहारकपन के कारण का अभाव होने से वे पाहारक ही होते हैं / स्नातक केवलिसमुद्घात के तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में तथा अयोगी अवस्था में अनाहारक होते हैं, शेष समय में प्राहारक होते हैं।' सत्ताईसवाँ भवद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में भवग्रहरण-प्ररूपणा 181. पुलाए गं भंते ! कति भवग्रहणाई होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं उक्कोसेणं तिन्नि। {181 प्र.] भगवन् ! पुलाक कितने भव ग्रहण करता है ? [181 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करता है / 182. बउसे० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं, उक्कोसेणं अट्ठ। {182 प्र.] भगवन् ! बकुश कितने भव ग्रहण करता है ? [152 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक और उत्कृष्ट पाठ भव ग्रहण करता है / 123. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। [183] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील का कथन है / 184. एवं कसायकुसीले वि। [184] कषायकुशील की वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। . 185. नियंठे जहा पुलाए। [185] निर्ग्रन्थ का कथन पुलाक के समान है। 186. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! एक्कं / [दारं 27] / [186 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने भव ग्रहण करता है / [186 उ.] गौतम ! वह एक भव ग्रहण करता है। [सत्ताईसवाँ द्वार] विवेचन-कौन कितने भव ग्रहण करता है ?पुलाक जघन्यतः एक भव में पुलाक हो कर कषायकुशील आदि किसी भी संयतत्व को एक बार या अनेक बार उसी भव में या अन्य भव में करके सिद्ध होता है और उत्कृष्ट देवादिभव से अन्तरित (बीच में देवादि भव) करते हुए तीसरे भव में पुलाकत्व को प्राप्त कर सकता है। बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के लिये जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं, इसका आशय यह है कि कोई साधक एक भव में बकुशत्व, प्रतिसेवनाकुशीलत्व या कषायकुशीलत्व को प्राप्त करके सिद्ध होता है और कोई साधक एक भव में बकुशादित्व प्राप्त करके भवान्तर में बकुशादित्व को प्राप्त किये बिना ही सिद्ध होता 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 905 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org