________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक जीवों द्वारा कर्मसमर्जन अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में छन्वीसवें शतकानुसार पापकर्मसमर्जन-प्ररूपरणा 1. अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया पावं कम्म कहिं समज्जिणिसु ? कहि समारिसु ? गोयमा ! सन्चे वि ताव तिरिक्खजोणिएस होज्जा / एवं एस्थ वि अट्ठ भंगा। [1 प्र.] भगवन ! अनन्तरोपपत्रक नै रयिकों ने किस गति में पापकर्मों का समर्जन किया था, कहाँ आचरण किया था ? _ [1 उ.] गौतम ! वे सभी तिर्यञ्चयोनिकों में थे, इत्यादि पूर्वोक्त आठों भंगों का यहाँ कथन कहना चाहिए। 2. एवं प्रणतरोधवनगाणं नेरइयाईणं जस्स जं अस्थि लेस्साईयं प्रणागारोवयोगपज्जवसाणं तं सव्वं एयाए भयणाए भाणियव्वं जाव वेमाणियाणं / नवरं अणंतरेसु जे परिहरियव्वा ते जहा बंधिसते तहा इहं पि। 2] अनन्त रोषपन्नक नैर यिकों की अपेक्षा लेश्या आदि से लेकर यावत् अनाकारोपयोगपर्यन्त भंगों में से जिसमें जो भंग पाया जाता हो, वह सब विकल्प (भजना) से यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। परन्तु अनन्त रोपपत्रक नैरयिकों के जो-जो बोल छोड़ने (परिहार करने योग्य (मिश्रदृष्टि मनोयोग, वचनयोगादि) हैं, उन-उन बोलों को बन्धीशतक के अनुसार यहाँ भी छोड़ देना चाहिए। 3. एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ। 4. एवं जाव अंतराइएणं निरवसेसं / एस वि नवदंडगसंगहिरो उद्देसश्रो भाणियन्वो / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। // अट्ठावीसइमे सए : बीओ उद्देसनो समत्तो // 28-2 / / [3-4] इसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म से लेकर यावत् अन्तरायकर्म तक नौ दण्डकसहित यह सारा उद्देशक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रनन्तरोपपन्नकों में ये बोल परिहरणीय- अनन्तरोपपन्नक नैरयिक में सम्यगमिथ्यात्व, मनोयोग, वचनयोगादि कतिपय पद संभावित नहीं हैं, इसलिए जैसे बन्धीशतक में उस विषय के प्रश्न नहीं किये गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी नहीं करने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org