________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] [581 राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता और पिता; इन आठों का मन, वचन, काय पोर दान, इन चार प्रकार से विनय करना चाहिए / यों 8 को 4 से गुणा करने पर 32 भेद हुए।' / चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्दृष्टि ?-- प्रायः शास्त्रों में अनेक स्थलों पर इन चारों वादियों को मिथ्याद क्रियावादी जीवादि पदार्थों के अस्तित्व को ही मानते हैं। इस प्रकार एकान्त अस्तित्व को मानने से इनके मत में पररूप की अपेक्षा से नास्तित्व नहीं माना जाता / पररूप की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व न मानने से वस्तु में स्वरूप के समान पररूप का भी अस्तित्व रहेगा। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में सभी वस्तुओं का अस्तित्व रहने से एक ही वस्तु सर्वरूप हो जाएगी, जो कि प्रत्यक्ष-वाचित है। इस प्रकार क्रियावादियों का मत मिथ्यात्वपूर्ण है। अक्रियावादी जीवादि पदार्थों का अस्तित्व नहीं मानते, इस कारण वे असद्भूत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। जीव के अस्तित्व का एकान्तरूप से निषेध करने के कारण वे भी मिथ्याष्टि हैं। जीव के अस्तित्व का निषेध करने से उनके मतानुसार निषेधकर्ता का भी प्रभाव सिद्ध जो प्रत्यक्ष-बाधित है / निषेधकर्ता का अभाव हो जाने से सभी का अस्तित्व स्वत: सिद्ध हो जाता है / अज्ञानवादी–अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानते हैं। इसलिए वे भी मिथ्यादृष्टि हैं और उनका कथन स्ववचन-बाधित है। क्योंकि 'अज्ञान ही श्रेयस्कर है' इस बात को वे बिना ज्ञान के कैसे जान सकते हैं और ज्ञान के अभाव में वे अपने मत का समर्थन भी कैसे कर सकते हैं ? इस प्रकार अज्ञान को श्रेयस्कर मानने पर भी उन्हें ज्ञान का आश्रय लेना ही पड़ता है। विनयवादी-विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष प्रादि कल्याण को पाने की इच्छा रखने वाले विनयवादी मिथ्यादष्टि हैं; क्योंकि ज्ञान और क्रिया दोनों से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अकेले ज्ञान से या अकेली क्रिया से नहीं / ज्ञान को छोड़ कर एकान्तरूप से क्रिया के केवल एक अंग का प्राश्रय लेने से वे सत्यमार्ग से दूर हैं। इस प्रकार से चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं। यह मत अन्य शास्त्रों में प्रतिपादित है। परन्तु प्रस्तुत शतक (तीसवें) में उपर्युक्त क्रियावादी का ग्रहण नहीं किया गया है। यहाँ 'क्रियावादी' शब्द से सम्यग्दष्टि का ग्रहण किया गया है, जो जीव-प्रजीव ग्रादि का अस्तित्व मानने के साथ-साथ आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य-पाप आदि के अस्तित्व को दृढ़तापूर्वक मानते हैं / सर्वज्ञवचनों पर श्रद्धा रख कर चलते हैं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 944 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3307 (म) अस्थित्ति किरियवाई वयंति, नस्थित्तिऽकिरयकाईओ। अन्नाणिय अन्नाणं, वेणइया विणयवायंति // 1 // --भ. अ. व. प. 944 2. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3608. (ख) एते च सर्वेऽप्यन्यत्र यद्यपि मिथ्यारष्टयोऽभिहितास्तथापीहाद्याः सम्यग्दृष्टयो ग्राह्या:, सम्यगस्तित्व वादिनामेव तेषां समाश्रयणात् / -भगवती. अ. व., पत्र 944 (ग) विशेष जानकारी के लिये देखिये----याचारांग वत्ति अ. 1, उ.१, पत्र 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org