________________ 578] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र रूप से श्रेयस्कर मानते हैं, इसलिए मिथ्यादृष्टि हैं। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में क्रियावादी को सम्यग्दृष्टि माना है। प्रक्रियावादी, विनयवादी एवं अज्ञानबादी दोनों ही प्रकार के माने गए हैं। किन्तु अज्ञानवादी एवं विनयवादी प्राय: मिथ्यादृष्टि दृष्टि हैं। * इस शतक में ग्यारह उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में समवसरण के क्रियावादी आदि चार भेद तथा पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों से विशेपित चौवीस दण्डकवती जीवों में क्रियावादिन आदि की प्ररूपणा की गई है। * इसके पश्चात् त्रियावादी प्रादि चारों ही प्रकार के जीवों के प्रायुष्यबन्ध का कथन किया गया है। * तृतीय दण्डक में क्रियावादी आदि औधिक तथा विशेषणयुक्त जीवों के भव्यत्व-अभव्यत्व का निर्णय किया गया है। * द्वितीय उद्देशक के अनन्तरोपपन्नक नैरयिक प्रादि के क्रियावादित्व-प्रक्रियावादित्व की चर्चा की गई है। साथ ही इनके आयुष्यबन्ध तथा भव्याभव्यत्व की भी चर्चा पूर्ववत् की गई है। * तृतीय उद्देशक में परम्परोपपन्नक नै रयिक आदि के क्रियावादित्व-अक्रियावादित्व की चर्चा की गई है। साथ ही प्रायुष्यबन्ध तथा भध्याभध्यत्व को चचो / * चौथे से ग्यारहवें उद्देशक में छब्बीसवें शतक के अतिदेशपूर्वक क्रमशः 8 उद्देशकों की प्ररूपणा की गई है। क्रम इस प्रकार है-अनन्तरावगाढ, परम्परावगाट, अनन्तराहारक-परम्पराहारक, अनन्तर पर्याप्तक, परम्पर-पर्याप्तक, चरम और अचरम / * कुल मिलाकर ग्यारह उद्देशकों के द्वारा विभिन्न पहलुओं से क्रियावादी आदि का सांगोपांग निरूपण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org