________________ तइयाइ-एक्कारसम-पज्जंता उद्देसगा तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक तक छव्वीसवें शतक के तीसरे से ग्यारहवें उद्देशकानुसार सम-विषम-कर्मप्रारम्भ एवं कर्मान्त का निरूपण 1. एवं एतेणं गमएणं जच्चेव बंधिसए उद्देसग-परिवाडी सच्चेव इह वि भाणियव्वा जाव अचरिमोत्ति / अणंतर-उद्देसगाणं चउण्ह वि एक्का वत्तब्वया, सेसाणं सत्ताह एक्का। ॥एगणतोसइमे सए : तइयाइ-एक्कारसम-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 26-3.11 // // एगणतोसइमं कम्म-पट्ठवणसयं समत्तं // 26 // [2] बन्धीशतक (26 वें शतक) में उद्देशकों की जो परिपाटी कही है, यहाँ भी इस पाठ से समग्र उद्देशकों की वह परिपाटी यावत् अचरमोद्देशक पर्यन्त कहनी चाहिए / अनन्तर सम्बन्धी चार उद्देशकों की एक वक्तव्यता और शेष सात उद्देशकों की एक वक्तव्यता कहनी चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-दो प्रकार की वक्तव्यताओं का अतिदेश-यहाँ दो प्रकार की वक्तव्यताओं का अतिदेश किया गया है। अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक, इन चार उद्देशकों की वक्तव्यता एक समान है और वह बन्धीशतक के अनन्तरसम्बन्धी चार उद्देशकों के समान कहनी चाहिए। शेष जो सात उद्देशक हैं, उनकी वक्तव्यता भी एक समान है और वह 26 वें शतक में उक्त वक्तव्यतानुसार कहनी चाहिए।' // उनतीसवां शतक : तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण // // उनतीसवाँ : कर्मप्रस्थापनशतक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 942 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org