________________ 572] (গ্রাসন समय में उत्पन्न होते हैं, (3) कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और सम (एक साथ) उत्पन्न होते हैं और (4) कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और विषम (भिन्न-भिन्न) समय में उत्पन्न होते हैं / इनमें से जो (1) समान प्रायु वाले और समान (एक साथ) उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन (भोग) एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं, (2) जो समान प्रायु वाले हैं, किन्तु विषम समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं, (3) जो विषम आयु वाले हैं और समान समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का भोग (वेदन) भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ अन्त करते हैं और (4) जो विषम आयु वाले हैं और विषम (भिन्न) समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन भी भिन्नभिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और अन्त भी विभिन्न समय में करते हैं, इस कारण से हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार का कथन किया है / 2. सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म० ? एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी (लेश्या वाले) जीव पापकर्म का वेदन एक काल में (एक साथ) करते हैं ? इत्यादि (पूर्वोक्त प्रकार से) प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! इसका समाधान पूर्ववत् समझना / 3. एवं सन्यट्ठाणेसु वि जाव अणागारोवउत्ता, एते सम्वे वि पया एयाए वत्तवयाए भाणितम्या। _ [3] इसी प्रकार सभी स्थानों में यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जानना चाहिए / इन सभी पदों में यही बक्तव्यता कहनी चाहिए / 4. नेरइया णं भंते ! पावं कम्मं कि समायं पट्टविसु, समायं निविसु० पुच्छा। गोयमा! अत्थेगइया समायं पट्टविस०, एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणितन्वं जाव प्रणागारोवउत्ता। [4 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक पापकर्म भोगने का प्रारम्भ एक साथ (एक काल में) करते हैं और उसका अन्त भी एक साथ करते हैं ? 14 उ.] गौतम ! कई नैरयिक एक साथ पापकर्म भोगने का प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही उसका अन्त करते हैं, इत्यादि सब (पूर्वोक्त चतुर्भगी का) कथन सामान्य जीवों की वक्तव्यता के समान यावत् अनाकारोपयुक्त तक नैरयिकों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। 5. एवं जाव वेमाणियाणं / जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणियध्वं / [5] इसी प्रकार (नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक जिस में जो बोल पाये जाते हों, उन्हें इसी क्रम से कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org