________________ अट्राईसवां शतक : उद्देशक 1] [567 पाठ भंगों का स्पष्टीकरण---इन पाठ भंगों में प्रथम भंग लियञ्चगति का ही है। दूसरा, तीसरा और चौथा, ये तीन भंग द्विकसंयोगी बनते हैं। यथा-तिर्यञ्च और नैरयिक, तिर्यञ्च और मनुष्य तथा तिर्यञ्च और देव / पांचवां, छठा और सातवाँ, ये तीन भंग त्रिकसंयोगी बनते हैं। यथा-तिर्यञ्च, नैरयिक और मनुष्य, तिर्यञ्च, नैरयिक और देव तथा तिर्यञ्च, मनुष्य और देव / अाठवाँ भंग-तिर्यञ्च, नैरयिक, मनुष्य और देव, इस प्रकार चतु:संयोगी बनता है।' ___तिर्यञ्चयोनि अधिक जीवों को आश्रयभूत होने से सभी जीवों की मातृरूपा है। इसलिए अन्य नारकादि सभी जीव कदाचित् तिर्यञ्च से पाकर उत्पन्न हुए हों, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि वे सभी तिर्यञ्चयोनि में थे।' इसका प्राशय यह है कि किसी विवक्षित काल में जो नैरयिक आदि थे, वे अल्पसंख्यक होने से, मोक्ष चले जाने के कारण अथवा तिर्यञ्चगति में प्रविष्ट हो जाने से उन विवक्षित नैरयिकों की अपेक्षा नरकगति निलेप (खाली) हो गई हो, परन्तु तिर्यञ्चगति अनन्त होने से कदापि खाली नहीं हो सकती। अतः उन तिर्यञ्चों में से निकल कर उन विवक्षित नैरयिकों के स्थान में नैरयिकरूप से उत्पन्न हुए हों, उनकी अपेक्षा यह कहा जा सकता है कि उन सभी ने तिर्यञ्चगति में (रहते) नरकगति आदि के हेतुभूत पापकर्मों का उपार्जन किया था। यह प्रथम भंग है। अथवा विवक्षित समय में जो मनुष्य और देव थे, वे निर्लेपरूप से वहाँ से निकल गए और उनके स्थानों में तिर्यञ्चगति और नरकगति से आकर जो जीव उत्पन्न हो गए, उनकी अपेक्षा से दूसरा भंग बनता है कि विवक्षित सभी जीव तिर्यञ्चयोनि और नैरयिकों में थे, जो जहाँ थे वहीं पर उन्होंने पापकर्मों का उपार्जन किया / अथवा विवक्षित समय में जो नैरयिक और देव थे, वे उसी प्रकार वहाँ से निर्लेपरूप से निकल गए और उनके स्थानों में तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति से प्राकर दूसरे जीव उत्पन्न हो गए, उनकी अपेक्षा यह तीसरा भंग बनता है कि वे सभी तिर्यञ्चों और मनुष्यों में थे, जो जहाँ थे वहीं पर उन्होंने पापकर्म उपाजित किये। इस प्रकार क्रमशः आठों भंगों के विषय में समझ लेना चाहिए / // अट्ठाईसवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 939 2. वही, पत्र 939 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org