________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [495 प्रमाण पाहार करना 'प्राप्त ऊनोदरी' है / अर्थात् चार विभाग में से तीन विभाग आहार है और एक भाग ऊनोदरी है ! इकतीस कवल-प्रमाण पाहार करना किंचित ऊनोदरी' है और पूरे बत्तीस कवल प्रमाण पाहार करना 'प्रमाणोपेत ऊनोदरी' है / पूर्ण आहार तप नहीं माना जाता / उस में से एक कौर भी आहार कम करे वहाँ तक थोड़ा तप अवश्य है। इस प्रकार ऊनोदरी तप करने वाला साधु 'प्रकामरस भोजी' नहीं है, ऐसा कहा जाता है / इस ऊनोदरी तप का विशेष विवेचन सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में किया गया है। भाव-ऊनोदरी के अनेक भेद कहे हैं / क्रोध, मान, माया और लोभ के आदेश को कम करना, अल्प वचन बोलना, क्रोध के वश यद्वा-तद्वा न बोलना (झंझा न करना) तथा हृदयस्थ कषाय (तुमन्तुम) को शान्त करना (मन में कुढ़ना-चिढ़ना नहीं) 'भाव-ऊनोदरी' है / ' भिक्षाचर्या, रसपरित्याग एवं कायक्लेश तप की प्ररूपणा 208. से किं तं भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–दस्वाभिग्गहचरए, खेताभिग्गहचरए, जहा उववातिए जाव सुद्धसणिए, संखादत्तिए / से तं भिक्खायरिया / [208 प्र.] भगवन् ! भिक्षाचर्या कितने प्रकार की है ? [208 उ.] गौतम ! भिक्षाचर्या अनेक प्रकार की कही है / यथा—द्रव्याभिग्रहचरक भिक्षाचर्या, क्षेत्राभिग्रहचरक भिक्षाचर्या, इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार यावत् शुद्धषणिक, संख्यादत्तिक, यहाँ तक कहना / यह भिक्षाचर्या का वर्णन हुआ। 206. से कि तं रसपरिच्चाए ? रसपरिच्चाए अणेगविधे पन्नते, तं जहा--निम्पितिए, पणोतरसविवज्जए जहा उववाइए जाव लहाहारे / से तं रसपरिच्चाए / [206 प्र. भगवन् ! रस-परित्याग के कितने प्रकार हैं ? [206 उ.] गौतम ! रस-परित्याग अनेक प्रकार का कहा गया है / यथा-निविकृतिक, प्रणीतरस-विवर्जक, इत्यादि औषपातिकसूत्र में कथित वर्णन के अनुसार यावत् रूक्षाहार-पर्यन्त कहना चाहिए। 210. से कितं कायकिलेसे ? ___ कायकिलेसे अणेगविधे पन्नते, तं जहा–ठाणावीए, उक्कुडुयासहिए, जहा उववातिए जाव सम्वगायपडिकम्मविप्पमुक्के / से तं कायकिलेसे / [210 प्र.] भगवन् ! कायक्लेश तप कितने प्रकार का है ? 210 उ.] गौतम ! कायक्लेश तप अनेक प्रकार का कहा है / यथा-स्थानातिग, उत्कुटुकासनिक इत्यादि औषपातिकसूत्र के अनुसार यावत् सर्वगात्रप्रतिकर्मविप्रमुक्त तक कहना चाहिए। 1. (क) भवगती. अ. वत्ति, पत्र 928 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3500-3501 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org