________________ 548] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मबन्ध की अपेक्षा अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की प्ररूपणा 10. जहा पावे एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ। [10] जिस प्रकार पापकर्म के विषय में कहा है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के विषय में भी (अनन्तरोपपन्नक-प्राश्रित) दण्डक कना चाहिए। 11. एवं पाउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडयो। [11] इसी प्रकार प्रायुष्यकर्म को छोड़ कर यावत् अन्त रायकर्म तक दण्डक कहना चाहिए। 12. अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरतिए पाउयं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! बंधी, न बंधति, बंधिस्सति / [12 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने आयुष्य कर्म बांधा था, बांधता है और बांगा? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भगीय प्रश्न / [12 उ.] गौतम ! (उसमें केवल तृतीय भंग ही पाया जाता है, अर्थात्---) उसने (पहले आयुष्यकर्म) बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्य में बांधेगा। 13. सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरतिए पाउयं कम्म कि बंधी० ? एवं चेव ततिम्रो भंगो। [13 प्र.] भगवन् ! सलेश्य अनन्त रोपपत्रक नै रयिक ने क्या आयुष्यकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / {13 उ.] गौतम ! उसी प्रकार (पूर्ववत्) तृतीय भंग होता है। 14. एवं जाव अणागारोवउत्ते / सम्वत्थ वि ततिम्रो भंगो। [14] इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त पद तक सर्वत्र तृतीय भंग समझना चाहिए। 15. एवं मणुस्सवज्जं जाव वेमाणियाणं / [15] इसी प्रकार मनुष्यों के अतिरिक्त यावत् वैमानिकों तक तृतीय भंग होता है। 16. मणुस्साणं सब्वत्थ ततिय-चउत्था भंगा, नवरं कण्हपक्खिएसु ततिम्रो भंगो / सम्वेसि णाणत्ताई ताई चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // छब्बीसइमे बंधिसए : बितिम्रो उद्देसओ समत्तो // 26-2 // [16/ मनुष्यों में सभी स्थानों में तृतीय और चतुर्थ भंग कहना चाहिए, किन्तु कृष्णपाक्षिक मनुष्यों में तृतीय भंग ही होता है। सभी स्थानों में नानात्व (भिन्नता) पूर्ववत् वही समझनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org