________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 11] [561 विशेष यह है कि सम्यक्त्व, अवधिज्ञान, प्राभिनिबोधिकज्ञान, और श्रुतज्ञान इन चार स्थानों में केवल तृतीय भंग कहना चाहिए / 16. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते ततियो भंगो / सेसपएसु सम्वत्थ पढम-ततिया भंगा। [16] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में सम्यगमिथ्यात्व में तीसरा भंग पाया जाता है। शेष पदों में सर्वप्रथम और तृतीय भंग जानना चाहिए। 17. मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेयए अकसायिम्मि य ततियो भंगो, अलेस्स-केवलनाणअजोगी य न पुच्छिज्जति, सेसपएसु सम्वत्थ पढम-ततिया भंगा। [17] मनुष्यों में सम्यगमिथ्यात्व, अवेदक और अकषाय में तृतीय भंग ही कहना चाहिए / अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / शेष पदों में सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग होता है / 18. वाणमंतर-जोति सिय-वेमाणिया जहा नेरतिया। [18] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए। 16. नामं गोयं अंतराइयं च जहेव नाणावरणिज्जं तहेव निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // छब्बीसइमे सए : एगारसमो उद्देसनो समत्तो / / 26-11 // // छब्बीसइमं बंधिसयं समत्तं // 26 // [16] नाम, गोत्र और अन्तराय, इन तीन कर्मों का बन्ध ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के समान समग्ररूप से कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन –स्पष्टीकरण ---ज्ञानाबरणीय कर्मबन्धक का दण्डक पापकर्मबन्ध के दण्डक के समान है, किन्तु पापकर्मदण्डक में सकषाय और लोभकषाय में प्रथम के तीन भंग कहे हैं, जबकि यहाँ प्रथम के दो भग (पहला और दूसरा) ही कहने चाहिए, क्योंकि ये ज्ञानावरणीय कर्म को बांधे बिना उसके पुनर्बन्धक नहीं होते, और सकषायी जीव सदैव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक होते ही हैं / अचरम होने से इनमें चौथा भंग नहीं होता। वेदनीयकर्म में सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग ही होता है। इसमें तीसरा और चौथा भंग घटित नहीं हो सकता, क्योंकि जो एक बार वेदनीय कर्म का प्रबन्धक हो जाता है, वह फिर वेदनीयकर्म कदापि नहीं बांधता। चौथा भंग अयोगी अवस्था में होता है, इसलिए वह अचरम में नहीं बनता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org