________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 11] 559 यहाँ प्रलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। शेष स्थानों में पूर्ववत् जानना चाहिए। 4. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरतिए / [4] वाणयन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिक के समान कथन करना चाहिए। विवेचन-अचरम : स्वरूप और भंगों की प्राप्ति का विश्लेषण--जो जीव जिस भव में वर्तमान है, उस भव को पुन: कभी प्राप्त करेगा, वह भव की अपेक्षा 'अचरम' कहलाता है / अचरम उद्देशक में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च तक के पदों में पापकर्म की अपेक्षा प्रथम और द्वितीय भंग कहा गया है / मनुष्य में अन्तिम भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग होते हैं। मनुष्य में चौथा भंग इसलिए नहीं बताया कि यहाँ अचरम का प्रकरण है और चौथा भंग चरमशरोरी मनुष्य में पाया जाता है / जिन बीस पदों में, पहले उद्देशक में चार भंग बताए थे, उनमें यहाँ अन्तिम भंग को छोड़ कर प्रथम के शेष तीन भंग कहने चाहिए। वे बीस पद ये हैं-जीव, सलेश्यी, शुक्ललेश्यी, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, मतिज्ञानी आदि चार, नोसंजोपयुक्त, सवेदी, सकषायी, लोभकषायो, सयोगी, मनोयोगी आदि तीन, साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त / इनमें सामान्यतया चार भंग ही होते हैं, किन्तु जब ये बीस पद अचरम मनुष्य के साथ हों, तब चौथा भंग इनमें नहीं होता, क्योंकि चौथा भंग चरम मनुष्य में ही होता है / अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी, ये तीन पद चरम में ही होते हैं, अचरम के साथ इनका प्रश्न सम्भव ही नहीं है, इस कारण इनके विषय में अचरम-सम्बन्धी प्रश्न करने का निषेध किया गया है।' अचरम चौवीस दण्डकों में ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध-प्ररूपरणा 5. अचरिमे णं भंते ! नेरइए नाणावरणिज्जं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! एवं जहेव पावं, नवरं मणुस्सेसु सकसाईसु लोभकसायीसु य पढम-बितिया भंगा, सेता अट्ठारस चरिमविहूणा / [5 प्र.] भगवन् ! क्या अचरम नैरयिक ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगात्मक प्रश्न / [5 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा था, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि सकषायी और लोभकषायी मनुष्यों में प्रथम और द्वितीय भंग कहने चाहिए। शेष अठारह पदों में अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहने चाहिए / 6. सेसं तहेव जाव वेमाणियाणं / [6] शेष सर्वत्र यावत् वैमानिक पर्यन्त पूर्ववत् जानना चाहिए / 1. (क) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3582 (ख): भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 937 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org