________________ छन्बोसवां शतक : उद्दशक 2] [549 _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तरोपपन्नक को प्रायुष्यकर्मबन्ध-विषयक चतुर्भगी चर्चा-अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में प्रायुष्यकर्म के विषय में सभी स्थानों में तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है, क्योंकि अनन्तरोपपन्नक मनुष्य आयुष्य नहीं बांधता, वह बाद में बांधेगा, इस अपेक्षा से उसमें तृतीय भंग घटित होता है / यदि मनुष्य चरमशरीरी हो तो वर्तमान में आयुष्य कर्म नहीं बांधता और न भविष्य में बांधेगा / इस प्रकार चतुर्थ भंग घटित होता है / कृष्णपाक्षिक अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में केवल तीसरा भंग ही होता है / प्राशय यह है कि प्रायुष्य कर्म की पृच्छा में मनुष्य के अतिरिक्त शेष तेईस दण्डकों में एकमात्र तृतीय भंग ही बताया गया है। मनुष्यों में भी कृष्णपाक्षिक को छोड़ कर शेष अनन्तरोपपन्नक मनुष्यों में पाये जाने वाले 35 बोलों में तीसरा और चौथा भंग बताया गया है। सभी नैरयिक जीवों में पापकर्मदण्डक में जो भिन्नताएँ कही हैं, वे सभी आयुष्यदण्डक में भी कहनी चाहिए।' // छन्वीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 935 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3568 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org