________________ बारसमो उद्देसओ : 'मिच्छे बारहवां उद्देशक : मिथ्याष्टि की उत्पत्ति चौवीस दण्डकगत मिथ्यादृष्टि जीवों की उत्पत्ति का अतिदेशपूर्वक निरूपरण 1. मिच्छदिद्विनेरइया णं भंते ! कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहानामए पवए पबमाणे०, अबसेसं तं चेव / [1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादृष्टि नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ इत्यादि अवशिष्ट (सब वर्णन) पूर्ववत् जानना। 2. एवं जाव वेमाणिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥पंचवीसहमे सते : बारसमो उद्देसनो समत्तो // 25-12 // // पंचवीसतिमं सतं समतं // [2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पूर्वोक्त चारों उद्देशकों (9-10-11-12) का वर्णन प्राय: समान है, किन्तु भव्य , अभव्य, सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि इन चार विशेषणों से युक्त चौवीस दण्डकों की उत्पत्ति के विषय में आठवें उद्देशक में वर्णित समस्त वर्णन का अतिदेश किया है। सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति में एकेन्द्रिय को छोड़ कर कहा गया है, वह इसलिए कि एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं / / / पच्चीसवां शतक : बारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / // पच्चीसवाँ शतक समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org