________________ छन्योसमां शतक : उद्देशक ] 41. मणूसस्स जच्चेव जीवपए वत्तत्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियब्वा / [41] मनुष्य के विषय में जीवपद में जो वक्तव्यता है, वहीं समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। 42. वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स। [42] वाणव्यन्तरों का कथन असुरकुमारों के कथन के समान है। 43. जोतिसिय-क्षेमाणियस्स एवं चेव, नवरं लेस्साओ जाणियन्यानो, सेसं तहेव भाणियन्वं / [43] ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी कथन इसी प्रकार है, किन्तु जिसके जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए / शेष सब पूर्ववत् समझना / विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कालिक पापकर्मबन्ध---नैरयिक जीव में उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी नहीं होती, इसलिए उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, केवल पहला और दूसरा भंग ही पाया जाता है / सलेश्य इत्यादि विशेषणयुक्त नैरयिकादि में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / असुरकुमारादि में भी इसी प्रकार प्रारम्भ के दो भंग पाये जाते हैं / औधिक जीव और सलेपय आदि विशेषणयुक्त जीव के लिए जो चतुभंगी आदि वक्तव्यता कही है, मनुष्य के लिए भी वह उसी प्रकार कहनी चाहिए, क्योंकि जीव और मनुष्य दोनों समानधर्मा जीव और चौवीस दण्डकों में ज्ञानावरणीय से लेकर मोहनीय-कर्मबन्ध तक को चतुर्भगीयप्ररूपरणा ग्यारह स्थानों में 44. जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्ज कम्म कि बंधी, बंधति, बंधिस्सति० ? एवं जहेव पावत्स कम्मस्स बत्तन्वया भणिया तहेव नाणावरणिज्जस्स वि भाणियव्वा, नवरं जीवपए मणुस्सपए य सकसायिम्मि जाव लोभकसाइम्मि य पढम-बितिया भंगा / अवसेसं तं चेव जाब वेमाणिए / [44 प्र.] भगवन् ! क्या जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि चातुभंगिक प्रश्न / [44 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्म की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म की वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु (ौधिक) जीवपद और मनुष्यपद में सकषायो (से लेकर) यावत् लोभकषायी में प्रथम और द्वितीय भंग ही कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 45. एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दंडगो भाणियव्वो निरवसेसं / [45] शानावरणीय कर्म के समान दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी समग्र दण्डक कहने चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 931 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org