________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 1] 57. केवलनाणो ततिविहूणा। [17] केवलज्ञानी में तृतीय भंग के सिवाय शेष तीनों भंग पाये जाते हैं। 58, एवं नोसन्नोवउत्ते, अवेदए, अकसायी, सागरोवउत्ते, अणागारोवउत्ते, एएसु ततियविहणा। [५८इसी प्रकार नो-संज्ञोपयुक्त में, अवेदी में, अकषायी में, साकारोपयुक्त एवं अनाकारोपयुक्त में भी तृतीय भंग को छोड़ कर शेष तीनों भंग पाये जाते हैं / 56. अजोगिम्मि य चरिमो। [56] अयोगी में अन्तिम (चतुर्थ) भंग जानना चाहिए / 60. सेसेसु पढम-वितिया / [60] शेष सभी में प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए। 61. नेरइए पं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं कि बंधी, बंधइ० ? एवं नेरइयाइया जाव वेमाणिय त्ति, जस्स जं प्रस्थि / सव्वत्थ वि पढम-बितिया, नवरं मणुस्से जहा जीवे / [61 प्र. भगवन् ! क्या नै रयिक जीव ने वेदनीय कर्म बांधा, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि (चातुभंगिक प्रश्न / ) 61 उ] इसी प्रकार नै रयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक जिसके जो लेश्यादि हों, वे कहने चाहिए / इन सभी में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है / विशेष यह है कि मनुष्य की वक्तव्यता सामान्य जीव के समान है। 62. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जं कम्मं कि बंधी, बंधति ? जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिज्ज पि निरवसेसं जाव वेमाणिए। [62 प्र.] भगवन् ! क्या जीव ने मोहनीय कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [62 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा था, उसी प्रकार समग्र कथन मोहनीयकर्मबन्ध के विषय में यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। विवेचन-ज्ञानावरणीय से मोहनीयकर्मबन्ध तक चतुर्भगोचर्चा-जिस प्रकार औधिक जीव सहित पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी पच्चीस दण्डक कहे, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबन्ध-सम्बन्धी पच्चीस दण्डक कहने चाहिए। किन्तु पापकर्मबन्ध के दण्डक में जीवपद और मनुष्यपद में सकषाय और लोभकषाय की अपेक्षा सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवर्ती जीव मोहनीयकर्मरूप पापकर्म का प्रबन्धक होता है, इसलिए चारों भंग कहे थे, क्योंकि सकषायी जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय का बन्धक अवश्य होता है, प्रबन्धक नहीं होता। वेदनीयकर्मबन्धसम्बन्धी चर्चा-वेदनीयकर्म के बन्धक में पहला भग अभव्यजीव की अपेक्षा से है, दूसरा भंग--- भविष्य में मोक्ष जाने वाले भव्यजीव की अपेक्षा से है, तीसरा भंग यहाँ घटित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org