________________ नाते हैं। 54.] [व्याख्याप्रजाप्तमूत्र 71. केवलनाणे चरिमो भंगी। [71] केवलज्ञानी में एकमात्र चौथा भंग पाया जाता है / 72. एवं एएणं कमेणं नोसनोवउत्ते बितियविहूणा जहेव मणपज्जवनाणे / [72] इसी प्रकार इस क्रम से नोसंज्ञोपयुक्त जीव में द्वितीय भंग के अतिरिक्त तीन भंग मन:पर्यवज्ञानी के समान होते हैं / 73. अवेयए अकसाई य ततिय-चउत्था जहेव सम्मामिच्छत्ते / [73] अवेदी और अकषायी में सम्य मिथ्यादृष्टि के समान तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है। 74. अजोगिम्मि चरिमो। [74] अयोगी केवली जीव में एकमात्र चौथा (अन्तिम) भंग पाया जाता है / 75. सेसेसु पएसु चत्तारि भंगा जाव प्रणागारोवउत्ते। [75] शेष पदों में यावत् अनाकारोपयुक्त तक में चारों भंग पाये जाते हैं / 76. नेरतिए णं भंते ! पाउयं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्येगतिए० चत्तारि भंगा। एवं सम्वत्थ वि नेरइयाणं चत्तारि भंगा, नवरं कण्हलेस्से कण्हपक्खिए य पढम-ततिया भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततिय-चउत्था / [76 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने आयुष्यकर्म बांधा था ? इत्यादि चातुर्भगिक प्रश्न / [76 उ.] गौतम ! किसी नैरयिक ने आयुष्यकर्म बांधा था इत्यादि चारों भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार सभी स्थानों में नैरयिक के चार भंग कहने चाहिए, किन्तु कृष्णलेश्यी एवं कृष्णपाक्षिक नैरयिक जीव में पहला तथा तीसरा भंग तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि में तृतीय और चतुर्थ भंग होता है। 77. असुरकुमारे एवं चेव, नवरं कण्हलेस्से वि चत्तारि भंगा भाणियन्वा / सेसं जहा नेरतियाणं। [77] असुरकुमार में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु कृष्णलेश्यी असुरकुमार में पूर्वोक्त चारों भंग कहने चाहिए / शेष सभी नै रयिकों के समान कहना चाहिए / 78. एवं जाव थणियकुमाराणं / [78] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए / 76. पुढविकाइयाणं सवत्थ वि चत्तारि भंगा, नवरं कण्हपक्खिए पढम-ततिया भंगा। [6] पृथ्वीकायिकों में सभी स्थानों में चारों भंग होते हैं / किन्तु कृष्णपाक्षिक पृथ्वीकायिक में पूर्वोक्त चार भंगों में से पहला और तीसरा भंग पाया जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org