________________ छठवीसा शतक : उद्देशक ) [88] नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म का (बन्ध-सम्बन्धी कथन) ज्ञानावरणीयकर्म के समान समझना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन---उ. 1, सू. 44 में ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध की जिस प्रकार सभी स्थानों में चतुर्भंगी की चर्चा की है, उसी प्रकार इन तीनों कर्मों के बन्ध के विषय में भी समझ लेना चाहिए / // छव्वीसवां शतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org