________________ 544] व्याख्याप्राप्तिसूत्र इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है तथा इनमें तेजोलेश्यायुक्त में तीसरा भंग होता है / दूसरे स्थानों में चार भंग होते हैं / तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में सभी स्थानों में पहला और तीसरा भंग ही होता है, क्योंकि वहाँ से निकल कर उनकी उत्पत्ति मनुष्यों में न होने से सिद्धिगमन का उनमें अभाव है। अतः दूसरा और चौथा भंग उनमें नहीं होता। विकले न्द्रिय जीवों में सभी स्थानों में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है, क्योंकि इनमें से निकले हुए मनुष्य तो हो सकते हैं, किन्तु मोक्ष नहीं पा सकते। इसलिए वे अवश्य ही अायु का बन्ध्र करेंगे। इस कारण उनमें प्रायुष्यबन्ध का अभाव न होने से दूसरा और चौथा भंग घटित नहीं होता। विकलेन्द्रियों में इतने स्थानों में विशेषता है--(१) सम्यक्त्व, (2) ज्ञान, (3) आभिनिबोधिकज्ञान, (4) श्रुतज्ञान। इन स्थानों में केवल तृतीय भंग ही पाया जाता है, क्योंकि इनमें सम्यक्त्व प्रादि सास्वादनभाव से अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। इनके चले जाने पर आयुष्य का बन्ध होता है / इस दृष्टि से इन्होंने पूर्वभव में प्रायुष्य वांधा था, वर्तमान में सम्यक्त्व आदि अवस्था में नहीं बांधते, किन्तु उसके बाद प्रायुष्य बाधेगे, इस प्रकार इनमें एक मात्र तृतीय भंग ही घटित होता है। __पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में कृष्णपाक्षिक पद में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है, क्योंकि कृष्णपाक्षिक आयु बांधे या न बांधे उसका प्रबन्धक अनन्तर ही होता है और मोक्ष में जाने के लिए अयोग्य होता है / सम्यगमिथ्यादष्टि तियंञ्चपंचेन्द्रिय में प्रायुष्यबन्ध का अभाव होने से तीसरा और चौथा भंग भी घटित होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में सम्यक्त्व ,ज्ञान, प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रतज्ञान और अवधिज्ञान, इन पांच स्थानों में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टियुक्त पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मर कर देवों में ही उत्पन्न होता है। वहाँ वह आयुष्य बांधेगा, इसलिए दूसरा भंग घटित नहीं होता / प्रथम और तृतीय भंग पूर्ववत् घटित कर लेने चाहिए। चौथा भग इस प्रकार घटित होता है - जैसे कि किसी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ने मनुष्यायु का बंध कर लिया, इसके पश्चात् उसे सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति हुई, इसके बाद पूर्व प्राप्त मनुष्यभव में ही वह मोक्ष चला जाए तो प्रायुष्य का बन्ध वह नहीं करेगा। इस प्रकार चौथा भंग घटित हो जाता है / मनुष्य के लिए भी सम्यक्त्व आदि पूर्वोक्त पांच पदों में भी इन तीन भंगों को इसी रीति से घटित कर लेना चाहिए।' जीव और चौवीस दण्डकों में नाम, गोत्र और अन्तरायकर्म की अपेक्षा ग्यारह स्थानों में चतुभंगी प्ररूपणा 88, नाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा नाणावरणिज्जं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥छव्वीसइमे बंधिसए : पढमो उद्देसमो समत्तो // 26-1 // 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 932 मे 934 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, इ. 3561 से 3564 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org