________________ 530] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीवों में घटित होता है, जो मोहनीयकर्म का उपशम करके पीछे गिरने वाले हैं और चौथा भंग क्षपक-अवस्था की प्राप्ति की अपेक्षा घटित होता है / ' चतुर्थ स्थान : सम्यक-मिथ्या-मिश्रदृष्टि जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध निरूपण 12. सम्मट्ठिीणं चत्तारि भंगा। [12] सम्यग्दृष्टि जीवों में चारों भंग जानना चाहिए / 13. मिच्छादिट्ठीणं पढम-बितिया। [13] मिथ्यादृष्टि जीवों में पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए / 14. सम्मामिच्छट्टिोणं एवं चेव / [14] सम्यग्-मिथ्यादृष्टि जीवों में भी इसी प्रकार पहला और दूसरा दो भंग जानने चाहिए। विवेचन--सम्यादष्टि प्रादि जीवों में चतुभंगी प्ररूपणा-सम्यग्दृष्टि जीवों में शुक्लपाक्षिक के समान चारों ही भंग पाये जाते हैं। मिथ्यादष्टि और मिश्रष्टि जीवों में पहला और दूसरा, ये दो भंग पाये जाते हैं। उनके मोहनीय कर्म का बन्ध होने से अन्तिम दोनों भंग उनमें घटित नहीं होते / / पंचम स्थान : ज्ञानी जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध निरूपण 15. नाणीणं चत्तारि भंगा। [15] ज्ञानी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। 16. प्राभिणिबोहियनाणीणं जाव मणपज्जवणाणोणं चत्तारि भंगा। [16] आभिनिबोधिक ज्ञानी से (लेकर) यावत् मनःपर्यवज्ञानी जोवों में भी चारों ही भंग जानने चाहिए। 17. केवलनाणोणं चरिमो भंगो जहा अलेस्साणं / [17] केवलज्ञानी जीवों में अन्तिम (चतुर्थ) एक भंग अलेश्य जीवों के समान पाया जाता है। विवेचन--ज्ञानी जीवों में चतुर्भगी प्ररूपणा-सामान्य ज्ञानी और ग्राभिनिबोधिक ज्ञानी से लेकर मनःपर्यवज्ञानी तक छद्मस्थ होने से मोहकर्मबन्ध होने के कारण पहले के दो भंग घटित होते हैं, शेष दो भंग भी शुक्लपाक्षिक जीवों के समान इनमें भी घटित होते हैं। 1. (क): भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 929 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3550 2. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 930 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org