________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 1] केवलज्ञानी जीवों के वर्तमान में तथा भविष्य में पापकर्म का बन्ध न होने से उनमें एकमात्र चतुर्थ भंग ही होता है / ' छठा स्थान : अज्ञानी जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध निरूपण 18. अन्नाणीणं पढम-बितिया। [18] अज्ञानी जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है / 16. एवं मतिअन्नाणोणं, सुयसन्नाणीणं, विभंगनाणीण वि। [16] इसी प्रकार मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी में भी पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए। विवेचन -अज्ञानी जीवों में दो भंग ही क्यों ? अज्ञानी जीवों तथा मति-अज्ञानी आदि तीनों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग ही पाए जाते हैं, क्योंकि उनके मोहनीयकर्म का बन्ध होने से अन्तिम दो भंग घटित नहीं होते। सप्तम स्थान : पाहारादि संज्ञी को अपेक्षा पापकर्मबन्ध प्ररूपरणा 20. प्राहारसनोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोधउत्ताणं पढम-वितिया। [20] आहार-संज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह-संज्ञोपयुक्त जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। 21. नोसण्णोव उत्ताणं चत्तारि। [21] नोसंज्ञोपयुक्त जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। विवेचन-आहारादि संज्ञा वाले जीवों में चतुभंगी-प्ररूपणा-पाहारादि चारों संज्ञाओं वाले जीवों में क्षपकत्व और उपशमकत्व नहीं होने से पहला और दूसरा दो भंग ही होते हैं। नोसंज्ञा अर्थात् साहारादि की आसक्ति से रहित जीवों के मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम सम्भव होने से उनमें चारों ही भंग पाये जाते हैं। अष्टम स्थान : सवेदक-अवेदक जीव को लेकर पापकर्मबन्ध प्ररूपणा 22. सवेयगाणं पढम-बितिया। एवं इत्थिवेयग-पुरिसवेयग-नपुंसगवेदगाण वि / 122] सवेदक जीवों में पहला और दूसरा भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुसकवेदी में भी प्रथम और द्वितीय भंग पाये जाते हैं। 23. अवेयगाणं चत्तारि / [23] अवेदक जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 930 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 930 3. भगवती. अ. पत्ति, पत्र 930 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org