________________ 524] व्याण्याप्रज्ञप्तिसून चतुर्थ उद्देशक में अनन्तरावगाढ नैरयिकादि में, पंचम उद्देशक में परम्परावगाढ नैरथिकादि में, छठे उद्देशक में अनन्तराहारक नैरयिकादि में, सातवें उद्देशक में परम्पराहारक नैरयिकादि में, पाठवें उद्देशक में अनन्तरपर्याप्तक नैरयिकादि में, नौवें उद्देशक में परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि में, दसवें उद्देशक में चरम नैरयिकादि में, और ग्यारहवें उद्देशक में अचरम नैरथिकादि में पूर्ववत् ग्यारह स्थानों के माध्यम से पापकर्म एवं अष्टविधकर्म के बन्ध की चतुर्भगी के रूप में प्ररूपणा है / * इन्हीं ग्यारह स्थानों के माध्यम से 27 वें शतक के ग्यारह उद्देशकों में त्रैकालिक पापकमकरण की चतुर्भगी के रूप में प्ररूपणा है। * अट्ठाईसवें शतक के प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव (एक और अनेक) तथा नैयिक से वैमानिक गति-योनि तक में नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में से पापकर्म एवं अष्टकर्म का समर्जन और समार्जन एवं समाचरण किया था, यह वर्णन है। * द्वितीय उद्देशक में इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नक नैरयिकादि में पापकर्म एवं अष्टविधकर्म के समर्जन एवं समाचरण का लेखाजोखा चतुर्विध भंगों के रूप में है। * तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक तक में पूर्ववत् अचरम तक के ग्यारह स्थानों के माध्यम से निरूपण है / * उनतीसवाँ कर्म-प्रस्थापन शतक है, जिसका अर्थ होता है पापकर्म या अष्टविधकर्म के वेदन का सम-विषमरूप से प्रारम्भ तथा अन्त / इसका प्ररूपण पूर्ववत् ग्यारह उद्देशकों में है। * कुल मिलाकर चारों शतकों में कर्मबन्ध से लेकर कर्मफलभोग तक का विविध विशिष्ट जीवों सम्बन्धी प्ररूपण है। कर्मसिद्धान्त का इतनी सूक्ष्मता से विविध पहलुओं से सांगोपांग प्ररूपण किया गया है कि अल्पशिक्षित व्यक्ति भी इतना तो स्पष्टता से समझ सकता है कि जीव विभिन्न गतियों, योनियों तथा लेश्या आदि से युक्त होकर स्वयमेव कर्म करता है, स्वयं ही शुभाशुभ कर्मबन्ध करता है, स्वयं ही उन शुभाशुभकृत कमों का फल भोगता है। कोई जीव किसी रूप में तो कोई किसी रूप में फलभोग देर या सवेर से करता है, ईश्वर, देवी, देव या कोई अन्य व्यक्ति न तो उसके बदले में शुभ या अशुभ कर्म कर सकता है, न ही कर्मों का बन्ध कर सकता है और न ही एक के बदले दूसरा कर्मफलभोग कर सकता है और न ही अपना शुभ फल या अशुभ फल दूसरे को दे सकता है। कुछ लोगों की यह मान्यता थी / है कि ईश्वर या कोई अन्य शक्ति किसी के आयुष्य को बढ़ाने-घटाने में समर्थ है, अल्पायु को अधिक प्रायु दी जा सकती है, अथवा आयुष्य की अदलाबदली हो सकती है, परन्तु जैनशास्त्रों में प्रतिपादित इस प्रकाटय सिद्धान्त से इस बात का खण्डन हो जाता है / * इन चारों शतकों से यह तथ्य भी प्रकट होता है कि अगर किसी जोव के कर्म निकाचितरूप से न बंधे हों और पापकर्म या अशुभकर्म का वेदन समभाव से करे तो वह स्वयं के अशुभ या पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org