________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक ) शरीर को नपाते हैं, अर्थात --शरीर पर इनका अधिक प्रभाव पड़ता है। इन तपश्चर्याों को करने वाला लोकव्यवहार में 'तपस्वी' के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है। अन्यतीथिकजन भी स्वाभिप्रायानुसार इन तपश्चर्यायों को अपनाते हैं। इन और ऐसे कारणों से ये तपश्चरण बाह्यतप कहलाते हैं / ये बाह्यतप मोक्षप्राप्ति के बाह्य अंग हैं।" षविध आभ्यन्तर तप के नाम-निर्देश 217. से कि तं भितरए तवे ? अम्भितरए तवे छविहे पन्नत्ते, तंजहा-पायच्छित्तं 1 विणलो 2 वेयावच्चं 3 सज्झायो 4 झाणं 5 विप्रोसग्गो 6 / . [216 प्र.। (भगवन् ! ) वह आभ्यन्तर तप कितने प्रकार का है ? {217 उ. (गौतम ! ) आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा है / यथा---(१) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्य, (4) स्वाध्याय, (5) ध्यान और (6) व्युत्सर्ग / विवेचन--प्राभ्यन्तर तप का स्वरूप--जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों (आन्तरिक परिणामों) के साथ हो, उसे पाभ्यन्तर तप कहा गया है / उपर्युक्त छह आभ्यन्तर तपों का आत्मा के परिणामों के साथ सीधा सम्बन्ध है। प्रायश्चित्त तप के दश भेद 218. से कि तं पायच्छित्ते? पायच्छित्ते दसविधे पन्नत्ते, लं जहा--पालोयणारिहे जाव पारंचियारिहे। से तं पायर्याच्छत्ते। [218 प्र.] (भगवन् ! ) प्रायश्चित्त कितने प्रकार का है ? [218 उ.] (गौतम ! ) प्रायश्चित्त दस प्रकार का कहा है / यथा---पालोचनाह (से लेकर) यावत् पाराचिकाई / यह हुआ प्रायश्चित्त तप / / विवेचन-प्रायश्चित : स्वरूप और तविषयक 50 बोल-मूलगुण और उत्तरगुण-विषयक अतिचारों से मलिन हुई आत्मा जिस अनुष्ठान से शुद्ध हो, अथवा जिस अनुष्ठान से पाप की शुद्धि हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। कहा भी है-- 'प्रायः पापं विजानीयात, चित्तं तस्य विशोधनम् / ' प्रायः का अर्थ है—पाप और चित्त का अर्थ है,--उसकी विशुद्धि / प्रायश्चित्त से सम्बन्धित पचास बोल इस प्रकार हैं--पालोचनाह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त, आकम्ध्य आदि आलोचना के दस दोष, दर्प, प्रमाद आदि प्रायश्चित्त-सेवन के दस कारण, फिर प्रायश्चित्त देने वाले के आचारवान प्रादि दस गुण और प्रायश्चित्त लेने वाले के जातिसम्पन्नता, कुलसम्पन्नता आदि दस गुण, इस प्रकार कुल मिला कर प्रायश्चित्त सम्बन्धी पचास बोल होते हैं / ' 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 35051 . 2. वही, भा. 7, . 3508 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org