________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [505 चारित्रविनय-चारित्र और चारित्रवानों का विनय करना / चारित्रविनय के पांच भेद मुत्रपाठ में बता दिये गए हैं / ___ मनोविनय एवं वचनविनय-आचार्य का मन से बिनय करना, मन के अशुभ व्यापारों को गेकना, उसे शुभ प्रवृत्ति में लगाना मनोविनय है / इसके प्रशस्त और अप्रशस्त, ये दो भेद किये हैं। मन में प्रशस्तभाव लाना 'प्रशस्तमनोविनय' है और अप्रशस्त मनोभावों को मन में न आने देना 'अत्रशस्तमनोविनय' है। मनोविनय के समान वचनविनय के भी चौवीस भेद हैं। आचार्य प्रादि का वचन से विनय करना, वचन की अशुभ-प्रवृत्ति को रोकना तथा शुभ-प्रवृत्ति में लगाना 'वचनविनय' है। कायविनय-प्राचार्य प्रादि का काया से विनय करना, काया की अशुभ प्रवृत्ति रोकना और शुभ प्रवृत्ति करना काय विनय है / इसके भी प्रास्त और अप्रशस्त, इस प्रकार दो भेद बताए हैं / यतनापूर्वक गमन करना, खड़े रहना, बैठना, सोना, उल्लंघन एवं प्रलंघन करना तथा इन्द्रियों और योगों की प्रवृत्ति सावधानी से करना 'प्रशस्त कायविनय' है तथा उपर्युक्त क्रियाओं में अप्रशस्तता-. अमावधानो को रोकना 'अप्रशस्त कायविनय' है। इस प्रकार कार्यावनय के 7+7= 14 भेद हुए। लोकोपचारविनय : विशेषार्थ एवं भेद-दूसरे सार्मिकों को सुख-शान्ति प्राप्त हो, इस प्रकार का व्यवहार एवं बाह्य चेष्टाएँ करना 'लोकोपचारविनय' है। इसके 7 भेद हैं, जिनका उल्लेख भूलपाठ में किया गया है / इस प्रकार विनय के कुल मिला कर 134 भेद होते हैं। प्रकारान्तर से बाबन भेद-अन्यत्र विनय के 52 भेद भी किये गए हैं। वे इस प्रकार हैंतोर्थकर, सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रिया, धर्म, ज्ञान, ज्ञानी, प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर और गणी, इन तेरह की-(१) आशातना न करना, (2) भक्ति करना, (3) बहुमान करना (इनके प्रति पूज्यभाव रखना) और (4) इनके गुणों की प्रशंसा करना / इन चार प्रकारों से इन तेरह का विनय करना; यो 1344 = 52 भेद विनय के होते हैं।' वैयावत्य और स्वाध्याय तप का निरूपण 235. से किं तं वेयावच्चे ? वेयावच्चे दसविधे पन्नत्ते, तंजहा-आयरियवेयावच्चे उवझायवे यावच्चे थेरवेयावच्चे तवस्सिवेयावच्चे गिलाणवेयावच्चे सेहवेयावच्चे कुलवेयावच्चे संघवेयावच्चे साहम्मियवेयावच्चे। से तं वेयावच्चे। [235 प्र.] (भगवन् ! ) वैयावृत्य कितने प्रकार का है ? [235 उ.] (गौतम ! ) वैयावृत्य दस प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) प्राचार्यवैयावृत्य, (2) उपाध्यायवैयावृत्य, (3) स्थविरक्यावृत्य, (4) तपस्वीवैयावृत्य, (5) ग्लानवैयावृत्य, 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 924-925 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3516-17-18 (ग) भगवती. प्रमेयचन्द्रिकाटीका, भा. 16, पृ. 453 से 468 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org