________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (6) शैक्ष (नव-दीक्षित)-वैयावृत्य, (7) कुलक्यावृत्य, (8) गणवैयावृत्य, (6) संघयावत्य और (10) सामिक वयावत्य / यह वैयावृत्य का वर्णन है। 236. से कि तं सज्झाए ? __ सज्झाए पंचविधे पन्नत्ते, तंजहा-बायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा। सेतं सज्झाए। [236 प्र. (भगवन् ! ) स्वाध्याय कितने प्रकार का है ? [236 उ.] (गौतम !) स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) वाचना. (2) प्रतिपृच्छना, (3) परिवर्तना, (4) अनुप्रेक्षा और (5) धर्मकथा / यह हुआ स्वाध्याय का वर्णन / विवेचन--वैयावत्य :प्रकार और स्वरूप-वैयावृत्य जैन शास्त्रों का पारिभाषिक शब्द है / . यह मुख्यतया सेवा-शुश्रूषा या परिचर्या के अर्थ में प्रयुक्त होता है / प्रस्तुत में वैयावृत्य के उत्तम पात्रों के अनुसार 10 भेद किये हैं। आचार्य (गुरु), तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित ग्रादि को विधिपूर्वक आहारादि लाकर देना, परिचर्या करना, सेवा करना आदि वैयावृत्य है।' स्वाध्याय : स्वरूप और प्रकार-अस्वाध्याय-काल को या अस्वाध्याय-दशा को छोड़ कर मर्यादा-पर्वक शास्त्रों का अध्ययन. वाचन या अध्यापन करना स्वाध्याय है। म हैं-(२)वाचना-शिष्य को या जिज्ञास साधक को शास्त्र और उनका अर्थ पढाना, वाचना देनामा स्वयं वाचना करना / (2) पच्छना-वाचना करने या वाचना लेने के बाद उसमें सन्देह होने पर या समझ में न आने पर अथवा पहले सीखे हुए शास्त्रीय ज्ञान या तात्त्विक ज्ञान में शंका होने पर योग्य अधिकारी से प्रश्न करना--पूछना पृच्छना है। (3) परिवर्तना--पढ़ा या सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत न हो जाए, इसलिए उसकी बार-बार आत्ति करना / (4) अनुप्रेक्षा...सीखे हए शास्त्र का अर्थ विस्मृत न हो जाए, इसलिए उसका बार-बार मनन-चिन्तन एवं स्मरण करना / (5) धर्मकथा चारों प्रकार से शास्त्रों का अच्छा अध्ययन हो जाने पर योताओं को शास्त्रों का व्याख्यान सुनाना, प्रवचन करना / 2 / ध्यान : प्रकार और भेद-प्रभेद 237. से कि तं भाणे? झाणे चउदिवधे पन्नत्ते, तं जहा-पट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे / [237 प्र.) (भगवन् !) ध्यान किसने प्रकार का है ? [237 उ.] (गौतम ! ) ध्यान चार प्रकार का कहा है। यथा--(2) पार्न ध्यान (:: रौद्रध्यान, (3) धर्मध्यान और (4) शुक्रलध्यान / 1. (क) विवाहपत्तिसुतं, भा. 2 (म. पा. टि.), इ. 1066 (ख) भगवती मूत्र (हिन्दी विवेचन ) मा. 2, पृ. 3516 2. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 3. पृ. 3519 (1) तत्त्वार्थ मुत्र अ. 1, सू. 28-25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org