________________ पच्चोमत्रां शतक : उद्देशक 7] [507 238. अट्टे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-अमणुण्यसंपयोगसंप उत्ते तस्स विप्पयोगरुतिसमन्नागते यावि भवति 1, मणुग्णसंयोगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमन्नागते यावि भवति 2, आयंकसंपयोगसंपउत्ते तस्स विपयोगसतिसमन्नागते यावि भवति 3, परिझुसियकामभोगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमन्नागते यावि भवति 4 / 238] प्रार्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) अमनोज्ञ वस्तुओं की प्राप्ति होने पर उनके वियोग की चिन्ता करना, (2) मनोज्ञ वस्तुओं को प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की चिन्ता करना, (3) अातंक (रोग-विपत्ति आदि कष्ट) प्राप्त होने पर उसके वियोग की चिन्ता करना पोर (4) परिसेवित या प्रीति-उत्पादक कामभोगों आदि की प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की चिन्ता करना। 236. अट्टस्स णं माणस्स चत्तारि लक्खणा पत्रत्ता, तं जहा-कंदणया सोयणया तिप्पणया परिदेवगया। [236] ग्रानध्यान के चार लक्षण कहे हैं / यथा-(१) क्रन्दनना (ना), (2) सोचनता (चिन्ता या शोक करना), (3) तपनता (बार-बार अश्रुपात करना) और (4) परिदेवन ता (विलाप मना)। 240. रोद्दे झाणे च उविधे पन्नत्ते, तं जहा--हिसाणुबंधी, मोसाणबंधी, तेयाणुबंधी, सारखणाणुबंधी। [240] रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा है। यथा-(१) हिंसानुबन्धी, (2) मृपानुवन्धी, (3) स्तेयानुवन्धी और (4) संरक्षणाऽनुबन्धी / 241. रोहस्स झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा-उस्सन्नदोसे बहुदोसे अण्णाणदोसे भामरणंतदोसे / . [241] रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे हैं / यथा-(१) प्रोसन्नदोप, (2) बहुलदोप, (3) जानदोष और (4) अामरणान्तदोप। 242. धम्मे झाणे चउबिहे चउपडोयारे पन्नत्ते, तं जहा-आणाविजये, अवायविजये विवागविजये संठाणविजये। [242] धर्मध्यान चार प्रकार का और चतुष्प्रत्यवतार कहा है। बथा-(2) आजाविचय, {7) अपायविचय, (3) विपाकविचय और (4) संस्थानविचय / 243. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा--प्राणारयी निसग्गरुयी मुत्तरुयी ओगाढरुयो। [243) धर्मध्यान के चार लक्षण बताए हैं / यथा—(2) अाज्ञानि, (2) निसर्गरुचि, (3) त्रात्रि और (4) अवगाहरुचि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org