________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 227. से कि तं अध्पसत्थमणविणए ? अप्पसत्थमणविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-पावए सावज्जे सकिरिए सउधक्के से अण्हयकरे छविकरे भूयाभिसंकणे / से तं अप्पसस्थमणविणए / से तं मणविणए / | 227 प्र.] अप्रशस्तमनोविनय कितने प्रकार का है ? | 227 उ. (गौतम ! ) अप्रशस्तमनोविनय भी सात प्रकार का कहा है। यथा--पापक (पापकारी), सावद्य, सक्रिय (कायिकी प्रादि क्रियाओं से युक्त), सोपक्लेश, प्राश्रवकारी, छविकारी (प्राणियों को या स्वपर को पीड़ा उत्पन्न करने वाला) और भूताभिशंकित (प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करने वाला)। यह हुआ अप्रशस्तमनोविनय का वर्णन / 228. से कि तं वइविणए ? वह विणए दुविधे पन्नते, तं जहा--पसस्थवविणए य अप्पसत्थवइविणए य / [228 प्र.] (भगवन् ! ) वचनविनय कितने प्रकार का है ? [228 उ.] (गौतम ! ) वचनविनय दो प्रकार का कहा है। यथा--प्रशस्तवचनविनय और अप्रशस्तवचनविनय / 229. से कि तं पसत्थवइविणए ? पसत्थवइविणए सत्तविधेपन्नत्ते, तंजहा–अपावए जाव अभूयाभिसंकणे / से तं पसत्थवइविणए / [226 प्र.] वह प्रशस्तवचनविनय कितने प्रकार का है ? / [226 उ.] (गौतम ! ) प्रशस्तवचनविनय सात प्रकार का कहा है। यथा-अपापक (पापरहित), असावद्य यावत् अभूताभिशंकित / 230. से कि तं अप्पसत्थवइविणए ? अप्पसत्थवइविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा--पावए सावज्जे जाव भूयाभिसंकणे / से त्तं अप्पसत्थवइविणए / से तं वइविणए / [230 प्र.J (भगवन् ! ) अप्रशस्तवचोविनय कितने प्रकार का है ? [230 उ.] (गौतम ! ) अप्रशस्त वचोविनय सात प्रकार का कहा है / यथा-पापक, सावद्य यावत् भूताभिशंकित / 231. से कि तं कायविणए ? कायविणए दुविधे पन्नत्ते, तं जहा-पसस्थकायविणए य अप्पसत्यकायविणए य / [231 प्र.] (भगवन् ! ) कायविनय कितने प्रकार का है ? [231 उ. (गौतम ! ) कायविनय दो प्रकार का कहा है। यधा-प्रशस्तकायविनय और अप्रशस्तकायविनय / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org