________________ 498] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (प्र.] वचनयोगप्रतिसंलीनता किस प्रकार की है ? [उ.] वचनयोगप्रतिसंलीनता इस प्रकार की है.--- अकुशल वचन का निरोध, कुशल वचन की उदीरणा और वचन की एकाग्रता करना / 215. से कि तं कायपडिसलीणया ? कायपडिसंलोणया जं गं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणि-पाए कुम्मो इव गुत्तिदिए अल्लोणे पल्लोणे चिट्ठइ / से तं कायपडिसंलोणया / से तं जोगपडिसंलोणया। [215 प्र.] कायप्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? [215 उ.] कायप्रतिसंलीनता है-सम्यक् प्रकार से समाधिपूर्वक प्रशान्तभाव से हाथ-पैरों को संकुचित करना (सिकोड़ना), कछुए के समान इन्द्रियों का गोपन करके आलीन-प्रलीन (स्थिर) होना / यह हुआ योगप्रतिसंलीनता का वर्णन / 216. से कि तं विवित्तसयणासणसेवणता? विवित्तसयणासणसेवणया जं गं पारामेसु वा उज्जाणेसु वा जहा सोमिलुद्देसए (स० 18 उ० 10 सु० 23) जाव सेज्जासंथारगं उपसंपज्जित्ताणं विहरति / सेत्तं विवित्तसयणासणसेवणया / से तं पडिसंलोणया / से तं बाहिरए तवे। - [216 प्र.] विविक्तशय्यासनसेवनता किसे कहते हैं ? [216 उ.] विविक्त (स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित) स्थान में, अर्थात्--पाराम (बगीचों) अथवा उद्यानों आदि में, (अठारहवें शतक के दसवें सोमिल-उद्देश क के सू. 23) के अनुसार, यावत् निर्दोष शय्यासंस्तारक आदि उपकरण लेकर रहना (यहाँ तक) विविक्तशय्यासनसेवनता है। यह हुई विविक्तशय्यासनसेवनता / इस प्रकार प्रतिसंलीनता का वर्णन पूर्ण हुना। साथ ही बाह्यतप का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन--प्रतिसंलीनता :विशेषार्थ, उद्देश्य और प्रकार--प्रतिसलीनता का सामान्य अर्थ है-- गोपन करना अथवा तल्लीन हो जाना / इसका विशेषार्थ है-इन्द्रिय, कषाय और योगों की अशभ प्रवृत्ति को रोकना, शुभ योग में प्रवृत्त होना, शुभ योग में एकाग्र होना / मुख्यरूप से इसके चार भेद हैं-इन्द्रियप्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसंलीनता और विविक्तशय्यासनसेवनता। इन्द्रियप्रतिसलीनता के पांच, कषायप्रतिसंलीनता के चार और योगप्रतिसंलीनता के तीन भेद; ये कुल बारह और तेरहवाँ विविक्तशय्यासनसेवनता; ये सभी मिलाने से तेरह भेद होते हैं / इनके विशेषार्थ मूलपाठ में स्पष्ट हैं / इन प्रतिसंलीनताओं के उद्देश्य भी मूल में स्पष्ट हैं।' ये बाह्यतप क्यों और किससिए ? ---अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता, ये छह बाह्यतप कहलाते हैं / ये बाह्य द्रव्यादि की अपेक्षा रखते हैं और प्रायः बाह्य१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 923 (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2 की टिप्पणी ( मू. पा. टि.), पृ. 1053 (ग) भगवतो. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3506 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org