________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [61 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत, सामायिकसंयत के परस्थानसन्निकर्ष (विजातीय चारित्रपर्यवों) को अपेक्षा क्या होन, तुल्य अथवा अधिक होता है ? 61 उ.] गौतम ! वह हीन होता है, किन्तु तुल्य या अधिक नहीं होता। वह अनन्तगुण हीन होता है। ____. अहक्खाते हेढिल्लाणं चउण्ह वि नो होणे, मो तुल्ले, अम्भहिए-अणंतगुणमभहिए / सट्टाणे नो होणे, तुल्ले, नो प्रभाहिए। [2] यथाख्यातसंयत नीचे के चार संयतों की अपेक्षा हीन भी नहीं तथा तुल्य भी नहीं; किन्तु अधिक होता है / वह अनन्तगुण अधिक होता है / स्वस्थानसन्निकर्ष ( सजातीय) चारित्रपर्यवों की अपेक्षा वह हीन भी नहीं और अधिक भी नहीं, किन्तु तुल्य होता है। 3. एएसि गं भंते ! सामाइय-छेदोवढावणिय-परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय-प्रहक्खायसंजयाणं जहन्नुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? / गोयमा ! सामाइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सम्वत्थोवा, परिहारविसुद्धियसंजयस्य जहन्नगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपउजवा प्रणतगुणा / सामाइयसंजयस्स छेप्रोवट्ठावणियसंजयस्स य, एएसि गं उक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला प्रणंतगुणा / सुहमसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरिपज्जवा प्रणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा / प्रहक्खायसंजयस्स अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा प्रणंतगुणा। [दारं 15] / [63 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनीयसंयत परिहारविशुद्धिकसंयत, सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत ; उनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्रपर्यवों में से किसके चारित्रपर्यव किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [96 उ.] गौतम ! सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत, इन दोनों के जघन्य चारित्रपर्यव परस्पर तुल्य और सबसे अल्प हैं। उनसे परिहारविशुद्धिकसंयत के जघन्य चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं / उनसे परिहारविशुद्धिक संयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं / उनसे सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं और परस्पर तुल्य हैं। उनसे सूक्ष्मसम्परायसंयत के जघन्य चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं: उनसे सूक्ष्मसम्परायसंयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यंब अनन्तगणे हैं। उनसे यथाख्यातसंयत के अजघन्य-अनत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुण हैं / पन्द्रहवाँ द्वार] विवेचन-चारित्रपर्यवों को होनाधिक-तुल्यता का कारण--सामायिकसंयत के संयमस्थान असंख्यात होते हैं। उनमें से जब एक संयत हीन शुद्धि वाला होता है और दूसरा संयत कुछ अधिक शुद्धि वाला होता है, तब उन दोनों सामायिकसंयतों में से एक (चारित्रपर्यवों से) हीन और दूसरा (चारित्रपर्यवों से) अधिक कहलाता है / इस हीनाधिकता में षट्स्थान-पतितता होती है / जब दोनों के संयमस्थान समान होते हैं तब तुल्यता होती है।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 913 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org