________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक ] [479 परिहारविशुद्धिकसंयतों का काल जघन्य अदावन वर्ष कम, देशोन दो सौ वर्ष होता है। यथा-उत्सर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर के समीप सौ वर्ष की प्रायु वाले कोई मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करे और उसके जीवन के अन्त में उसके पास सौ वर्ष की आयु वाला दूसरा कोई मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करे, परन्तु उनके पास फिर कोई तीसरा मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार नहीं करता। इस प्रकार दो सौ वर्ष होते हैं / परन्तु परिहारविशुद्धिसंयम अंगीकार करने बाला 29 वर्ष की आयु हो जाने पर ही यह चारित्र अंगीकार कर सकता है / इस प्रकार दो व्यक्तियों के 58 वर्ष कम दो सौ वर्ष होते हैं, अर्थात् जघन्यकाल 142 वर्ष होता है। वत्तिकार की इस व्याख्या के अनुसार ही चणिकार ने भी इस प्रकार की व्याख्य तु वह अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थंकर की अपेक्षा से की है। दोनों व्याख्याओं की संगति एक ही प्रकार से है / उत्कृष्ट काल देशोन दो पूर्वकोटिवर्ष होता है। जैसे कि-प्रवपिणीकाल के प्रथम तीर्थंकर के समीप पूर्वकोटिवर्ष आयु वाला मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करे और उसके जीवन के अन्त में उतनी ही प्रायु वाला दुसरा मुनि इसी चारित्र को अंगीकार करे। इस प्रकार दो पूर्व कोटिवर्ष होते हैं। उनमें से उक्त दोनों मुनियों की 26-26 वर्ष की आयु कम करने पर 58 वर्ष कम देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष होते हैं।' तीसवाँ अन्तरद्वार : पंचविध संयतों में काल का अन्तर 164. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं० जहा पुलागस्स (उ०६ सु० 207) / [164 प्र.] भगवन् ! (एक) सामायिकसंयत का अन्तर कितने काल का होता है ? [164 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्महूर्त इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 207 में उक्त) पुलाक के समान जानना। 165. एवं जाव अहक्खायसंजयस्स। [165] इसी प्रकार का कथन यावत् यथाख्यातसंयत तक समझना चाहिए। 166. सामाइयसंजयाणं भंते ! * पुच्छा। गोयमा! नत्थंतरं। 6166 प्र.] भगवन् ! (अनेक) सामायिकसंयतों का अन्तर कितने काल का होता है ? [166 उ.] गौतम ! उनका अन्तर नहीं होता। 167. छेदोवट्ठावणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं तेवढि वाससहस्साई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। [167 प्र.] भगवन् ! ( अनेक) छेदोपस्थापनीय संयतों का अन्तर कितने काल का होता है ? [167 उ] गौतम ! उनका अन्तर जघन्य तिरेमठ हजार वर्ष और उत्कृष्ट (कुछ कम) अठारह कोडाकोडी सागरोपम काल का होता है / 1. (क) भगवती. म. वृत्ति, पत्र 916-918 . (ख) भगवती.(हिन्दी विवेचन) अ. 7, पृ. 3878 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org