________________ 478] व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र [160 प्र.] भगवन् ! (अनेक) छेदोपस्थापनीयसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [160 उ.] गौतम ! जघन्य अढाई सौ वर्ष और उत्कृष्ट पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होते हैं 161. परिहारविसुद्धिए पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं देसूणाई दो बाससयाई, उक्कोसेणं देसूणानो दो पुवकोडीयो। [161 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिहारविशुद्धिकसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [161 उ.] गौतम ! वह जघन्य देशोन दो सौ वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पूर्वकोटिवर्ष तक होते हैं। 162. सुहुमसंपरागसंजया० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [162 प्र.] भगवन् ! (अनेक) सूक्ष्मसम्परायसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [162 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त तक रहते हैं / 163. अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया। [दारं 26] / [163] (बहुत) यथाख्यातसंयतों का कथन (सू. 156 में उक्त) सामायिकसंयतों के समान जानना चाहिए। विवेचन-सामायिक प्रादि संयतों की स्थिति : स्पष्टीकरण-सामायिकचारित्र (संयम) की प्राप्ति के बाद तुरन्त ही मृत्यु हो जाए तो उसकी अपेक्षा से सामायिक संयत का काल जघन्य एक समय होता है और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष होता है। यह काल गर्भ के समय से गिनना चाहिए। परिहार विशुद्धिकसंयत का जघन्यकाल एक समय मरण की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट देशोन उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होता है। क्योंकि पूर्वकोटिवर्ष की आयु वाला कोई मनुष्य यदि देशोन नौ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण करता है तो वह बीस वर्ष की दीक्षापर्याय होने पर दष्टिवाद का ज्ञान प्राप्त करके पश्चात् परिहारविशुद्धिकसंयम (चारित्र) को अंगीकार कर सकता है / यद्यपि परिहारविशुद्धिचारित्र का कालपरिमाण अठारह मास का है तथापि उन्हीं अविच्छिन्न परिणामों से वह उसे जीवनपर्यन्त पाले तो उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटिवर्षपर्यन्त रहता है। यथाख्यातसंयत का कालपरिमाण उपशम अवस्था में मरण की अपेक्षा जघन्य एक समय तथा स्नातक अवस्था वाले संयत की अपेक्षा देशोन पूर्वकोटिवर्ष है। उत्सपिणीकाल में प्रथम तीर्थकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है और उनका तीर्थ (शासन) अढाई सौ वर्ष चलता है। इसलिए छेदोपस्थापनीय संयतों का काल जघन्य अढाई सौ वर्ष होता है / अवसपिणीकाल में प्रथम तीर्थकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है और उनका तीर्थ पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होता है। इसलिए उत्कृष्ट इतने काल तक छेदोपस्थापनीयसंयत होते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org