________________ .48.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लेने में असमर्थ साधु को थोड़ा-थोड़ा प्रायश्चित्त देकर निर्वाह कराने वाले। (8) अपायदर्शीआलोचना नहीं लेने से परलोक का भय तथा दूसरे दोष बताकर भलीभांति पालोचना कराने वाले। आलोचना सुनने वाले के यहाँ उपर्युक्त आठ गुण बताये हैं, किन्तु स्थानांगसूत्र में दस गुण बताए हैं, जिनमें (8) प्रियधर्मी और (10) दृढधर्मी-ये दो गुण अधिक हैं / ' चतुर्थ समाचारीद्वार : समाचारी के 10 भेद 164. दसविहा सामायारी पन्नत्ता, तं जहा इच्छा 1 मिच्छा 2 तहक्कारो 3 आवस्सिया य 4 निसीहिया 5 / प्रापुच्छणा य 6 पडिपुच्छा 7 छंदणा य 8 निमंतणा / उपसंपया य काले 10, सामायारी भवे दसहा / / 6 // [दारं 4] / [164] समाचारी दस प्रकार की कही है। यथा-[गाथार्थ] (1) इच्छाकार, (2) मिथ्याकार, (3) तथाकार, (4) अावश्यकी, (5) नैषेधिकी, (6) आपृच्छना, (7) प्रतिपृच्छना, (8) छन्दना, (6) निमंत्रणा और (10) उपसम्पदा / / 6 / [चतुर्थ द्वार] विवेचन-इच्छाकार आदि को परिभाषा--(१) इच्छाकार-'यदि आपकी इच्छा हो, तो आप मेरा अमुक कार्य करें,' अथवा 'आपकी प्राज्ञा हो, तो मैं आपका यह कार्य करू'--इस प्रकार पूछना 'इच्छाकार' है। इस समाचारी से किसी भी कार्य में किसी की विवशता नहीं रहती / इस समाचारी के अनुसार एक साधु, दुमरे साधु से उसकी इच्छा जान कर ही कार्य करे, अथवा दूसरा साधु अपने गुरु या बड़े साधु की इच्छा जान कर स्वयं वह कार्य करे। (2) मिथ्याकार-संयमपालन करते हुए कोई विपरीत आचरण हो गया हो, तो उस पाप के लिए पश्चात्ताप करता हुआ साधु स्वयं यह उद्गार निकालता है कि 'मिच्या मि दुक्कडं'-- अर्थात् मेरा यह दुष्कृत-पाप मिथ्या (निष्फल) हो, इसे मिथ्याकार-समाचारी कहते हैं। . (3) तथाकार -सूत्रादि अागम-वाचना या व्याख्या के मध्य गुरु से कुछ पूछने पर जब वे उत्तर दें तब अथवा व्याख्यान दें तब तहत्ति' अर्थात् आप कहते हैं, वह यथार्थ है; कहना 'तथाकार' समाचारी है। (4) आवश्यकी-यावश्यक कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर निकलते समय 'ग्रावस्सइप्रावस्सई' कहे / अर्थात मै आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता है, ऐसा कहना 'आवश्यकी' समाचारी है। (5) नषेधिको बाहर से लौट कर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहि-निसी हि' कहे / अर्थात् जिस कार्य के लिए मैं बाहर गया था, उस कार्य से निवृत्त होकर आ गया हूँ, इस प्रकार उस कार्य का निषेध करना 'नधिको समाचारी है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3489-3490 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org