________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (2) प्रतिक्रमणाह-प्रतिक्रमण के योग्य / अर्थात्---जिस पाप या दोष की शुद्धि केवल प्रतिक्रमण से हो जाए। प्रतिक्रमणाह प्रायश्चित्त में गुरु के समक्ष प्रालोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती। (3) तदुभयाह-आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य / जिस दोष की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से हो उसे तदुभयाई प्रायश्चित्त कहते हैं / (4) विवेकाह-अशुद्ध आहारादि पा गया हो तो उसे पृथक कर देने से अथवा प्राधाकर्मादि दोषयुक्त आहारादि का विवेक यानी त्याग कर देने से जिस दोष की शुद्धि हो उसे 'विवेकाह प्रायश्चित्त कहते हैं। (5) व्युत्सहि-कायोत्सर्ग के योग्य / शरीर की चेष्टा को रोक कर ध्येय बस्तु में उपयोग लगाने से जिस दोष की शुद्धि होती हो, उसे 'व्युत्सर्गाह प्रायश्चित्त' कहते हैं / (6) तपाई-जिस दोष की शुद्धि तप से हो, उसे 'तपार्ह प्रायश्चित्त' कहते हैं / (7) छेदाह-दीक्षापर्याय में छेद यानी कटौती करने के योग्य / जिस अपराध की शुद्धि दीक्षापर्याय का छेद करने से हो, उसे छेदाई' प्रायश्चित कहते हैं। (8) मूलाह-मूल अर्थात् मूलगुणों-महाव्रतों को पुनः ग्रहण करने यानी फिर से दीक्षा लेने से दोषशुद्धि होने योग्य / ऐसा प्रबल दोष, जिसके सेवन करने पर पूर्वगृहीत संयम छोड़ कर दूसरी बार नई दीक्षा लेनी पड़े, वह 'मूलाई प्रायश्चित्त है। मूलाह-प्रायश्चित्त में पहले का संयम बिलकुल नहीं गिना जाता, दोषी को उस समय से पहले दीक्षित सभी साधुओं को वन्दना करनी पड़ती है। (E) अनवस्थाप्यारी--अमुक प्रकार का विशिष्ट तप न कर ले, तब तक महादोषी साधु वेष या महाव्रतों में रखने योग्य नहीं होता, इस प्रकार का अनवस्थान अर्थात् अनिश्चित काल तक साधुजीवन में स्थापित न करने के कारण, ऐसा प्रायश्चित्त 'अनवस्थाप्य' कहलाता है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में दोषी को अमुक निश्चित तप करने तथा गृहस्थ का वेष पहनाने के बाद दूसरी बार दीक्षा देने के बाद ही शुद्धि होती है। (10) पारांचिकाह-जिस गम्भीर दोष के सेवन करने पर साधु को गच्छ से बाहर निकलने तथा स्वक्षेत्र-त्याग करने योग्य प्रायश्चित्त दिया जाए, उसे पोराचिकाई प्रायश्चि प्रायश्चित्त रानी या साध्वी आदि का शील-भंग या किसी विशिष्ट व्यक्ति की हत्या प्रादि महादोष सेवन करने पर दिया जाता है। इस प्रायश्चित्त में दोषी को साधुवेष और स्वक्षेत्र का त्याग करके जिनकल्पी के समान महातप का आचरण करना पड़ता है। ऐसी पारम्परिक धारणा है कि पारांचिकाई प्रायश्चित्त महासत्त्वशाली प्राचार्य को ही दिया जाता है / इस प्रायश्चित्त द्वारा दोषशुद्धि के लिए छह महीने से लेकर बारह वर्ष तक गच्छ छोड़ कर जिनकल्पी के समान कठोर तपश्चरण करना पड़ता है। उपाध्याय के लिए नौवें प्रायश्चित्त तक का है और सामान्य साधू के लिए पाठवें मूलाई तक का विधान है। जहाँ तक चतुर्दशपूर्वधारी और वज्रऋषभनाराचसंहननी होते हैं, वहीं तक दसों प्रायश्चित्त होते हैं। उनका विच्छेद होने के पश्चात् मूलाह तक आठों ही प्रायश्चित्त होते हैं। ह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org