________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [487 [162] दस गुणों से युक्त अनगार अपने दोषों की अालोचना करने योग्य होता है। यथा(१) जातिसम्पन्न, (2) कुलसम्पन्न, (3) विनयसम्पन्न, (4) ज्ञानसम्पन्न, (5) दर्शनसम्पन्न, (6) चारित्रसम्पन्न, (7) क्षान्त (क्षमाशील), (8) दान्त, (6) अमायी और (10) अपश्चात्तापी / 193. अहिं ठाणेहि संपन्ने अणगारे अरिहति पालोयणं पडिच्छित्तए, तं जहाअायारवं 1 आहारवं 2 ववहारवं 3 उन्वीलए 4 पकुठवए 5 अपरिस्सावी 6 निज्जवए 7 अवायदंसी 8 / [दारं 3] / {163] पाठ गुणों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने (सुनने और सुनकर प्रायश्चित्त देने) के योग्य होते हैं / यथा-(१) प्राचारवान्, (2) प्राधारवान्, (3) व्यवहारवान्, (4) अपव्रीडक, (5) प्रकुर्वक. (6) अपरिस्राबी, (7) निर्यापक और (8) अपायदर्शी / तृतीय द्वार] विवेचन–पालोचना करने योग्य प्रनगार : दस गणों से सम्पन्न-(१) जातिसम्पन्न--मातपक्ष के कुल को जाति कहते हैं। उत्तम जाति (मातकुल) वाला बुरा कार्य नहीं करता। कदाचित उससे भूल हो भी जाती है तो वह शुद्ध हृदय से आलोचना कर लेता है। (2) कुलसम्पन्न--(पितवंश) को कुल कहते हैं। उत्तम कुल (पितृवंश) में पैदा हुआ व्यक्ति स्वीकृत प्रायश्चित्त, को सम्यक प्रकार पूर्ण करता है / (3) विनयसम्पन्न-बिनयवान् साधु, बड़ों की बात मानकर पवित्र हृदय से आलोचना करता है / (4) ज्ञानसम्पन्न- सम्यग्ज्ञानवान् साधु मोक्षमार्ग की प्राराधना करने के लिए क्या करना उचित है और क्या नहीं ? इस बात को भलीभांति समझ कर आलोचना करता है। (5) दर्शनसम्पन्न--श्रद्धावान् साधक भगवान के वचनों पर श्रद्धा होने के कारण शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त से होने वाली शुद्धि को मानता और श्रद्धापूर्वक आलोचना करता है। (6) चारित्रसम्पन्न उत्तम अथवा विशुद्ध चारित्र पालन करने वाला साधक चारित्र को शुद्ध रखने के लिए दोषों की आलोचना करता है / (7) क्षान्त --क्षमावान् / किसी दोष के कारण गुरु से उपालम्भ आदि मिलने पर वह क्रोध नहीं करता, और सहिष्णुतापूर्वक समभाव से दिया हुआ प्रायश्चित्त सहन करता है, अपना दोष स्वीकार करके आलोचना करता है। (8) दान्त --इन्द्रियों को वश में रखने वाला। इन्द्रिय विषयों के प्रति अनासक्त साधक कठोर से कठोर प्रायश्चित्त को स्वीकार कर लेता है / वह पापों की आलोचना भी शुद्ध चित्त से करता है। (6) अमायो–छल-कपट और दम्भ से रहित / अपने पाप को बिना छिपाए वह स्वच्छ हृदय से पालोचना करता है। (10) अपश्चात्तापी आलोचना करने के बाद पश्चात्ताप नहीं करने वाला साधक / ऐसा व्यक्ति आराधक होता है। आलोचना सुनने (सुनकर योग्य प्रायश्चित्त देने) योग्य अनगार-पाठ गुणों से युक्त होते हैं / यथा- (1) प्राचारवान्--ज्ञानादि पांच प्रकार के प्राचार से युक्त, (2) प्राधारवान्-बताए हुए अतिचारों (दोषों) को मन में धारण करने वाले, (3) व्यवहारवान्-अागमव्यवहार, श्रुतव्यवहार, धारणाव्यवहार, जीतव्यवहार आदि पांच प्रकार के व्यवहार के ज्ञाता। (४)अपनीडक--- लज्जा से अपने दोषों को छिपाने वाले शिष्य की लज्जा मीठे वचनों से दूर करके भलीभाँति अालोचना कराने वाले / (5) प्रकुर्वक -यालोचना किये हुए दोष का योग्य प्रायश्चित्त देकर अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ। (6) अपरिनाको-पालोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के समक्ष प्रकाशित नहीं करने वाले। (7) निर्यापक --प्रशक्ति या किसी अन्य कारण से एक साथ पूरा प्रायश्चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org