________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक [485 प्रथम प्रतिसेवनाद्वार : प्रतिसेवना के दस भेद 160. दसविहा पडिसेवणा पन्नत्ता, तं जहा दाप 1 पमाद-ऽणाभोगे 2-3 पाउरे 4 आवती 5 ति य / संकिणे 6 सहसक्कारे 7 भय 8 प्पदोसा 6 य वोमंसा 10 // 7 // [दारं 1] / [160] प्रतिसेवना दस प्रकार की कही है। यथा [गाथार्थ --(1) दर्पप्रतिसेवना, (2) प्रमादप्रतिसेवना, (3) अनाभोगप्रतिसेवना, (4) आतुरप्रतिसेवना, (5) आपत्प्रतिसेवना, (6) संकीर्णप्रतिसेवना, (7) सहसाकारप्रतिसेवना, (8) भयप्रतिसेवना, (6) प्रदुषप्रतिसेवना और (10) विमर्शप्रतिसेवना / / 7 / / [प्रथम द्वार] विवेचन–प्रतिसेवना के प्रकार और स्वरूप-पाप या दोषों के सेवन से होने वाली चारित्र की विराधना को 'प्रतिसेवना' कहते हैं। उसके मुख्य दस भेद हैं-(१) दर्पप्रतिसेवना-अभिमान (अहंकार) पूर्वक होने वाली संयम की विराधना / (2) प्रमादप्रतिसेवना-अष्टविध मदजनित या मद्य, विषय. कषाय, निद्रा और विकथा आदि प्रमादों के सेवन से होने वाली संयमविराधना। (3) अनाभोगप्रतिसेवनाअनजान में हो जाने वाली संयमविराधना / (4) प्रातुरप्रतिसेवना-भूख, प्यास, रोग-व्याधि आदि किसी पीड़ा से व्याकुलतावश को गई संयम की स्खलना / (5) अापत्प्रतिसेवना-किसी प्राफत, सकट या विपत्ति के प्राते पर की गई संयम की विराधना। आपत्ति चार प्रकार की होती है। द्रव्य-आपत्ति-प्रासुक, दोषरहित अाहारादि न मिलना। क्षेत्र-ग्रापत्ति--मार्ग भूल जाने से भयंकर अटवी आदि में भटक जाना, अथवा उक्त क्षेत्र में दुर्भिक्ष, भूकम्प, या अन्य क्षेत्रीय संकट आ पड़ना / काल-आपत्ति-दुभिक्ष, दुदिन आदि और भाव-आपत्ति-रोगातंक से शरीर अस्वस्थ-अशक्त हो जाना। (6) संकीणप्रतिसेवना-स्वपक्ष और परपक्ष से होने वाली स्थान की तंगी के कारण संयम मर्यादा का अतिक्रमण करना / अर्थात् छोटे-छोटे क्षेत्रों में साधु, साध्वियों तथा भिक्षाचरों के अधिक संख्या में इकट्ठहो जाने से संयम में दोष लगना / शंकितप्रतिसेवनाग्रहणयोग्य आहारादि में किसी दोष की आशंका होने पर भी उसे लेना / अथवा निशीथसूत्रानुसार पाहारादि के न मिलने पर खेदपूर्वक वचन बोलना तितिणप्रतिसेवना है। (7) सहसाकारप्रतिसेवना--- हठात या अकस्मात पहले से बिना सोचे-विचारे, अथवा विना प्रतिलेखना किये कोई दोषयुक्त प्रवृत्ति करना / यथा--पहले बिना देख सहसा भूमि पर पैर आदि रखना और पीछे देखना / (8) भयप्रतिसेवना-सिंह आदि के भय से संयम की विराधना करना / (8) प्रद्वेषप्रतिसेवनाकिसी के प्रति द्वेष, ईर्ष्या या क्रोधादिकषाय के वश संयम की विराधना करना और (10) विमर्शप्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा आदि के लिए विचारपूर्वक की गई संयम इन दस कारणों में से किसी भी कारण से संयम की विराधना की जाती या हो जाती है / आलोचना करते समय गुरु इसका निर्णय करते हैं।' द्वितीय पालोचनाद्वार : आलोचना के दस दोष 161. दस पालोयणादोसा पन्नत्ता, तं जहा१. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 919 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृष्ठ 3486-3487 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org