________________ 484] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छत्तीसवाँ अल्पबहुत्वद्वार : पंचविध संयतों का अल्पबहुत्व 188. एएसि णं भंते ! सामाइय-छेदोवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिय-सुहमसंपरायअहक्खायसंजयाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा सुहुमसंपरायसंजया, परिहारविसुद्धियसंजया संखेज्जगुणा, अहक्खायसंजया संखेज्जगुणा, छेदोवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुणा, सामाइयसंजया संखेज्जगुणा / [दारं 36] / [188 प्र.] भगवन् ! इन सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयतों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? / [188 उ.] गौतम ! सूक्ष्मसम्परायसंयत सबसे थोड़े होते हैं; उनसे परिहारविशुद्धिकसयत संख्यातगुणे हैं, उनसे यथाख्यातसंयत संख्यातगुणे हैं, उनसे छेदोपस्थापनीयसयत संख्यातगुणे हैं और उनसे सामायिकसंयत संख्यातगुणे हैं / [छत्तीसवाँ द्वार विवेचन-संयतों का अल्पबहुत्व : स्पष्टीकरण-अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सूक्ष्मसम्परायसंयत बताए हैं, क्योंकि उनका काल अत्यल्प है और वे निग्रन्थ के तुल्य होने से एक समय में शतपथक्त्व होते हैं / उनसे परिहारविशद्धिकसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका काल सूक्ष्मसम्परायसंयतों से अधिक है और वे पुलाक के समान सहस्रपृथक्त्व होते हैं। उनसे यथाख्यातसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका परिमाण कोटिपृथक्त्व है / उनसे छेदोपस्थापनीयसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका परिमाण कोटिशतपृथक्त्व होता है। उनसे सामायिकसयत संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि उनका परिमाण कषायकुशील के समान कोटिसहस्रपृथक्त्व होता है।' प्रतिसेवना-दोषालोचनादि छह द्वार 186. पडिसेवण 1 दोसालोयण य पालोयणारिहे 3 चेव / तत्तो सामायारी 4 पायच्छित्ते 5 तवे 6 चेव // 6 // [186. माथार्थ] (1) प्रतिसेवना, (2) दोषालोचना, (6) आलोचनाह, (4) समाचारी, (5) प्रायश्चित्त और (6) तप / / 6 // विवेचन-विशेषार्थ-ये छह द्वार प्रायः प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है / प्रथम प्रतिसेवनाद्वार में यह देखा जाता है कि किया गया दोष किस प्रकार का है ? द्वितीयद्वार है-पालोचना के दोष। उसका आशय यह है कि लगे हुए दोषों को पालोचना शुद्ध है या किसी दोष से युक्त है ? यदि दोषयुक्त है तो किस प्रकार के दोष से युक्त है ? तृतीयद्वार में आलोचना करने वाले और सुनने वाले दोनों के गुणों का प्रतिपादन है। चतर्थद्वार है- समाचारी / उसका आशय यह है कि साधु को किस प्रकार की समाचारी से युक्त होना चाहिए, ताकि संयम में दोष न लगे। पचमद्वार है-प्रायश्चित्त / जिसका प्राशय यह है कि आलोचना के बाद दोषसेवन करने वाले साधु को किस प्रकार का प्रायश्चित्त प्राता है ? इसका निर्णय करना चाहिए / छठा द्वार है-तप / प्रायश्चित्त में अमुक तप-विशेष भी दिया जाता है, इसलिए तप का 12 भेदों सहित वर्णन किया गया है / - - - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 918-919 --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org