________________ 462] [स्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तेतीसवाँ स्पर्शनाद्वार : पंचविध संयतों को क्षेत्रस्पर्शना-प्ररूपणा 176. सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जतिभागं फुसति ? जहेव होज्जा तहेव फुसति वि। [दारं 33] / [176 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है ? इत्यादि प्रश्न / [179 उ.] गौतम ! जिस प्रकार क्षेत्र-अवगाहना कही है, उसी प्रकार क्षेत्र-स्पर्शना भी जाननी चाहिए। तेतीसवाँ द्वार] चौतीसवाँ भावद्वार पंचविध संयतों में औपशमिकादि भावों की प्ररूपणा 160. सामाइयसंजए णं भंते ! कयरम्मि भावे होज्जा ? गोयमा ! खग्रोवसमिए भावे होज्जा। [180 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत किस-किस भाव में होता है ? [180 उ.] गौतम ! वह क्षायोपशमिक भाव में होता है / 181. एवं जाव सुहमसंपराए / [181] इसी प्रकार का कथन यावत् सूक्ष्मसम्परायसंयत तक जानना चाहिए / 12. अहक्खायसंजए० पुच्छा। गोयमा ! प्रोवसमिए वा खइए वा भावे होज्जा ।[दारं 34] / [182 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत किस-किस भाव में होता है ? [182 उ.] गौतम ! वह औपशमिक भाव या क्षायिक भाव में होता है / [चौतीसवाँ द्वार] विवेचन---अतिदेशसमुदघातद्वार से लेकर भावद्वार तक (लोकस्पर्श, क्षेत्रद्वार, स्पर्शनाद्वार एवं भावद्वार आदि) के लिए छठे उद्देशक में उक्त पुलाक आदि का अतिदेश किया है, जिसे वहाँ से समझ लेना चाहिए। पैतीसवाँ परिमारणद्वार : पंचविध संयतों के एक समयवर्ती परिमारण की प्ररूपणा 183. सामाइयसंजया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा ? गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च जहा कसायकुसीला (उ० 6 सु० 232) तहेव निरवसेसं। [183 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत एक समय में कितने होते हैं ? [183 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा समग्र कथन (उ. 6, सू. 232 में उक्त) कषायकुशील के समान जानना चाहिए / 184. छेदोबट्ठावणिया० पुच्छा। गोयमा! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय प्रथि, सिय नस्थि / जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं / पुवपडिवनए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नस्थि / जदि अस्थि जहन्नेणं कोडिसयपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहत्तं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org