________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) [471 126. एवं जाव परिहारविसुद्धिए। [126] इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिकसंयत पर्यन्त कहना चाहिए / 127. सुहमसंपराए० पुच्छा। गोयमा ! छविहउदीरए वा, पंचविहउदीरए वा। छ उदीरेमाणे पाउय-वेदणिज्जवज्जाम्रो छ कम्मप्पगडीप्रो उदोरेइ / पंच उदीरमाणे पाउय-वेणिज्ज-मोहणिज्जवज्जाश्रो पंच कम्मघ्पगडीयो उदोरेति। [127 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है ? {127 3.] गौतम ! वह छह या पांच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है। यदि छह की उदीरणा करता है तो आयुष्य और वेदनीय को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियों को उदीरता है; यदि वह पांच की उदीरणा करता है तो आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़ कर शेष पांच कर्मप्रकृतियों को उदीरता है। 128. अहक्खातसंजए० पुच्छा / गोयमा ! पंचविहउदीरए वा, दुविहउदीरए वा, अणुदीरए वा। पंच उदोरेमाणे पाउयवेदणिज्ज-मोहणिज्जवज्जानो पंच उदीरेति / सेसं जहा नियंठस्स (उ० 6 सु० 165) / [दारं 23] / [128 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत कितनी कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा करता है ? [128 उ.] गौतम ! वह पांच या दो कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है या अनुदीरक होता है / यदि वह पांच की उदीरणा करता है तो आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़ कर शेष पांच कर्मप्रकृतियों को उदीरता है, इत्यादि शेष वर्णन (उ. 6 सू. 165 के कथित) निर्गन्थ के समान जानना चाहिए। [तेईसवाँ द्वार] विवेचन-सामायिक से लेकर परिहारविशुद्धिकसंयत तक बकुश की तरह सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है / सात में आयुष्यकर्म को छोड़ कर और छह में प्रायुष्य और वेदनीय को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है। सूक्ष्मसम्परायसयत छह या पांच का उदीरक होता है, यह मूल में स्पष्ट है / यथाख्यातसंयत आयु, वेदनीय और मोहनीय, इन तीन को छोड़ कर शेष पांच का उदीरक होता है अथवा नाम और गोत्र इन दो कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है अथवा किसी का भी उदीरक नहीं होता / ' चौवीसवाँ हान-उपसम्पद-द्वार : पंचविध संयतों के स्वस्थान-त्याग परस्थान-प्राप्ति-प्ररूपणा 126. सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे कि जहति ? कि उवसंपज्जइ ? गोयमा ! सामाइयसंजयत्तं जहति; छेदोवडावणियसंजयं वा सुहमसंपरायसंजयं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जति / 1. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 16, पृ. 316-317 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org