________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7 ] भव तथा परिहारविशुद्धिकसंयत से यथाख्यातसंयत तक जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करते हैं। अट्ठाईसवां आकर्षद्वार : पंचविध संयतों के एक भव एवं नाना भवों की अपेक्षा प्राकर्ष की प्ररूपणा 144. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवतिया प्रागरिसा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं० जहा बउसस्स (उ० 6 सु. 188) / [144 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत के एक भव में कितने प्रकर्ष ( चारित्रग्रहण ) होते हैं ? __ [144 उ.] गौतम ! उसके जघन्य और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं; इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 188 में उक्त) बकुश के समान जानना / 145. छेदोवट्ठश्वणियस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं बीसपुहत्तं / [145 प्र.] भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [145 उ.] गौतम ! उसके जघन्य एक और उत्कृष्ट बीस-पृथक्त्व (दो बीसी से छह बीसी तक) आकर्ष होते हैं। 146. परिहारविसुद्धियस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं तिन्नि / [146 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [146 उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन आकर्ष होते हैं। 147. सुहमसंपरायस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि। [147 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [147 उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट चार आकर्ष होते हैं। 148. अहक्खायस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं दोन्नि / [148 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? {148 उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट दो पाकर्ष होते हैं / 146. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! नाणाभवग्गहणिया केवतिया प्रागरिमा पन्नत्ता? गोयमा ! जहा बउसे (उ० 6 सु० 163) / [146 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत के अनेक भवों में कितने प्राकर्ष होते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org