________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 1 [449 छेदोपस्थापनीय संयतत्व का व्यवहार किया जाता है, अर्थात् उसे इत्वरिक सामायिक-संयत कहते हैं / प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन (तीर्थ) में उक्त नवदीक्षित साधु के इत्वरकालिक सामायिक समझनी चाहिए। परम्परा से यह जघन्य 7 दिन, मध्यम 4 मास और उत्कृष्ट 6 मास को (कच्ची दीक्षा) होती है। यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक कहलाती है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर भगवान से अतिरिक्त मध्य के 22 तीर्थंकरों एवं महाविदेह क्षेत्र के 20 विहरमान तीर्थंकरों के तीर्थ में सामायिक चारित्र लेने के पश्चात् पुनः दूसरा व्यपदेश नहीं होता / अतएव वे यावत्कथिक सामायिक-संयत ही कहलाते हैं। जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद और महावतों का उपस्थापन (ग्रारोपण) होता है, उसे छेदोषस्थापनीय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र भरतक्षेत्र और ऐरवतक्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है / मध्यवर्ती तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता। इसके दो भेद हैंसातिचार और निरतिचार / इत्वर-सामायिक वाले साधु के तथा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधु के जो महावतों का आरोपण होता है, वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है / मूलगुणों का घात करने वाले साधु का पुनः महाव्रतों में प्रारोपण होता है, वह सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। जिस चारित्र में परिहार (तप-विशेष) से कर्मनिर्जरारूप शुद्धि होती है, उसे 'परिहारविशुद्धि चारित्र' कहते हैं / इसे अंगीकार करने वाले साधुगण 'परिहारविशुद्धिक-संयत' कहलाते हैं। नौ साधनों का गण गरु-प्राज्ञा से प्रात्मशद्धि के हेत परिहारविशुद्धि चारित्र अंगीकार करता है। उन नौ साधुओं में से चार साधु 6 मास तक तप करते हैं, चार साधु सबकी वैयावृत्य करते हैं और एक साधु व्याख्यान बांचता है। दूसरे छह मास में 4 वैयावच्ची मुनि तप करते हैं और तप करने वाले वैयावृत्य करते हैं तथा एक साधु व्याख्यान वांचता है / तीसरे छह मास में उक्त व्याख्यानी साधु तप करता है, एक व्याख्यान वांचता है और सात साधु सबकी वैयावृत्य करते हैं / तपश्चर्या में ग्रीष्मऋतु में एकान्तर उपवास, शीतऋतु में छ?-छ? (बेले-बेले) उपवास और चौमासे में अट्ठम-अटुम (तेले-तेले) उपवास करते हैं / इस प्रकार 18 मास तप करके जिनकल्पी बन जाते हैं अथवा पुनः गुरुकुलवास स्वीकार करते हैं। जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय (संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश) ही शेष रहता है, उसे सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहते हैं / इसके संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक, ये दो भेद हैं। उपशमश्रेणी से गिरते हुए मुनि के परिणाम संक्लेशसहित होते हैं, इसलिए उसका चारित्र संक्लिश्यमान-सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। क्षपकश्रेणी या उपशमश्रेणी पर आरूढ होने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध रहने से उसका चारित्र विशुद्धयमान-सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। ऐसे चारित्र से युक्त मुनि को 'सूक्ष्मसम्परायसंयत' कहते हैं। कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार-रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यातचारित्र अथवा अकषायी साधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र यथाख्यातचारित्र कहलाता है। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 909. (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ.३४३६ 2. (क) वही, भा. 3537 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org