________________ 458] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] जदि प्रोसप्पिणिकाले होज्जा जहा पुलानो (उ० 6 सु० 68 [2]) / [59-2] यदि अवसर्पिणीकाल में होता है, तो (उ. 6, सूत्र 68.2 में कहे अनुसार) पुलाक के समान होता है। [3] उस्सप्पिणिकाले वि जहा पुलानो (उ० 6 सु० 68 [3]) / [59-3] उत्सर्पिणीकाल में होता है, तो (उ. 6, सू. 68-3 में कहे अनुसार) पुलाक के समान होता है। 60. सुहमसंपरानो जहा नियंठो (उ० 6 सु० 72) / [60] सूक्ष्मसम्परायसंयत का कथन (उ. 6, सू. 72 के अनुसार) निग्रन्थ के समान समझना चाहिए। 61. एवं अहक्खायो वि [दारं 12] / [61] इसी प्रकार यथाख्यातसंयत का (काल-विषयक कथन) निर्ग्रन्थ के समान जानना / विवेचन--स्पष्टीकरण सामायिकसंयत का काल बकुश के समान बताया गया है / अर्थात् प्रवसर्पिणीकाल के तीसरे, चौथे और पांचवें आरे में उसका जन्म और सद्भाव (संयम-विचरण) होता है तथा उत्सर्पिणीकाल के दूसरे, तीसरे और चौथे में उसका जन्म और तीसरे, चौथे पारे में उसका सद्भाव होता है। महाविदेहक्षेत्र में भी होता है। संहरण की अपेक्षा अन्य क्षेत्र (30 अकर्मभूमियों) में भी होता है। छेदोपस्थापनीयसंयत, सामायिकसंयतवत् जानना, किन्तु महाविदेहक्षेत्र में वह नहीं होता / परिहारविशुद्धिकसंयत का अवसर्पिणीकाल के तीसरे-चौथे आरे में एवं उत्सर्पिणीकाल के दूसरे-तीसरे आरे में जन्म और तीसरे-चौथे बारे में सद्भाव होता है / सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत का अवसपिणी के तीसरे-चौथे बारे में जन्म और सदभाव तथा उत्सपिणीकाल के दूसरे-तीसरे-चौथे बारे में जन्म और तीसरे, चौथे बारे में सद्भाव होता है / यह महाविदेहक्षेत्र में भी होता है तथा इसका संहरण अन्यत्र भी होता है।' सामायिकसंयत का नोअवसर्पिणी-नोउत्सपिणी के सुषमादि-समान तीन प्रकार के काल में (देवकरु अादि में बकश के समान जन्म और सदभाव का निषेध किया है तथा दुःषम-दःषमा-समान काल में (महाविदेह क्षेत्र में) सद्भाव कहा है। छेदोपस्थापनीयसंयत का चारों पलिभाग में (अर्थात देवकुरु आदि में) तथा महाविदेह क्षेत्र में निषेध किया है / तेरहवाँ गतिद्वार : पंचविध संयतों में गतिप्ररूपणादि 62. [1] सामाझ्यसंजए णं भंते ! कालगते समाणे कंगति गच्छति ? गोयमा ! देवगति गच्छति / [62-1 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कालधर्म (मृत्यु) प्राप्त कर किस गति में जाता है ? [62-1 उ.] गौतम ! वह देवगति में जाता है। 1. भगवती, उपक्रम, पृष्ठ 635 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 913 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org