________________ 440] [ध्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र को प्राप्त होता है / वह कालतः अनन्तकाल अनन्त अवसर्पिणी-उन्सपिणीरूप अन्तर समझना चाहिए तथा क्षेत्रत: देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन का अन्तर जानना चाहिए। क्षेत्रतः पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप-कोई जीव आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर मृत्यु को प्राप्त हो। इस प्रकार मरण से जितने काल में समस्त लोक को व्याप्त करे, उतना काल 'क्षेत्र-पुद्गलपरावर्तन कहलाता है / यहाँ पुलाक आदि का अन्तर देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन काल बतलाया है / ___बकुश से लेकर कषायकुशील तक एवं स्नातक का अन्तर नहीं होता, क्योंकि इनका पतन नहीं होता, इसलिए इनका अन्तर नहीं पड़ता।' इकतीसवाँ समुद्घातद्वार : समुद्घातों की प्ररूपरणा 215. पुलागस्स णं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता? गोयमा ! तिनि समुग्घाया पन्नत्ता, सं जहा-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्धाए / [215 प्र. भगवन् ! पुलाक के कितने समुद्घात कहे हैं ? [215 उ.] गौतम ! उसके तीन समुद्घात कहे हैं। यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात / 216. बउसस्स गं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! पंच समुग्धाता पन्नता, तं जहा-वेयणासमुग्धाए जाव तेयासमुग्धाए / [216 प्र.] भगवन् ! बकुश के कितने समुद्घात कहे हैं ? [216 उ.] गौतम ! उसमें पांच समुद्घात कहे हैं। यथा--वेदनासमुद्धात से लेकर यावत् तैजससमुद्घात तक। 217. एवं पडिसेषणाकुसीले वि। [217] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए / 218. कसायकुसीलस्स० पुच्छा / गोयमा ! छ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा वेयणासमुग्घाए जाव प्राहारगसमुग्धाए / [218 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील के कितने समुद्घात कहे हैं ? [218 उ.] गौतम ! उसमें छह समुद्घात कहे हैं / यथा-वेदनासमुद्घात से लेकर यावत् पाहारकसमुद्घात तक। 219. नियंठस्स पं० पुच्छा। गोयमा ! नस्थि एक्को वि / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 906 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org