________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] (205 प्र. भगवन् ! निष्कम्प परमाणु-पुद्गलों का अन्तर कितने काल का होता है ? |205 उ.] गौतम ! उनका भी अन्तर नहीं होता ! 206. एवं जाब अणंतपएसियाणं खंधाणं / [206] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का अन्तर समझ लेना चाहिए। विवेचन–परमाणु को सकम्प निष्कम्प दशा-परमाणु को निष्कम्पदशा प्रौत्सर्गिक (स्वाभाविक) है। इसलिए उसका उत्कृष्ट (स्थायित्व) काल असंख्यात है। उसकी सकम्पदशा आपवादिक (अस्वाभाविक) है, कभी-कभी होने वाली है। इसलिए वह उत्कृष्टतः प्रावलिका के असंख्यातवें भाग मात्र काल-पर्यन्त ही रहती है / बहुत से परमाणुओं की अपेक्षा सकम्पदशा सर्वकाल रहती है, क्योंकि भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में कोई भी ऐसा समय न था, न है और न होगा, जिसमें सभी परमाणु निष्कम्प रहते हों / यही बात (अनेक परमाणों की) निष्कम्प दशा के लिए जाननी चाहिए / सभी परमाणु सदा काल के लिए निष्कम्प रहते हों, ऐसी बात भी नहीं है / कोई न कोई परमाणु उस समय सकम्प रहता ही है।' स्वस्थान और परस्थान को अपेक्षा अन्तर का आशय-अन्तर के विषय में जो स्वस्थान और परस्थान का कथन किया है, उसका अभिप्राय यह है कि जब परमाणु, परमाणु-अवस्था में स्कन्ध से पृथक रहता है, तब वह 'स्वस्थान' में कहलाता है और स्कन्ध-अवस्था में होता है तब 'परस्थान में कहलाता है। एक परमाणु एक समय तक चलन-क्रिया से रुक कर फिर चलता है, तब स्वस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य एक समय का होता है और उत्कृष्टतः वही परमाणु असंख्यातकाल तक किसी स्थान में स्थित रह कर फिर चलता है, तब अन्तर असंख्यात काल का होता है। जब परमाणु द्वि-प्रदेशादि स्कन्ध के अन्तर्गत होता है और जघन्यतः एक समय चलन-क्रिया से निवृत्त रह कर फिर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का अन्तर होता है। परन्तु जब वह परमाण असंख्यातकाल तक द्वि-प्रदेशादि स्कन्धरूप में रह कर पुनः उस स्कन्ध से पृथक होकर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्टतः अन्तर असंख्यातकाल का होता है / __जब परमाणु निश्चल (स्थिर) होकर एक समय तक परिस्पन्दन करके पुनः स्थिर होता है और उत्कृष्टतः पावलिका के असंख्यातवें भागरूप काल (असंख्य समय) तक परिस्पन्दन करके पुनः स्थिर होता है, तब स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्यातवें भाग का अन्तर होता है। परमाणु निश्चल होकर स्वस्थान से चलित होता है और जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक द्वि-प्रदेश आदि स्कन्ध के रूप में रह कर पुन: निश्चल हो जाता है या उससे पृथक होकर स्थिर हो जाता है, तब वह अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट होता है। द्वि-प्रदेशी स्कन्ध चलित होकर अनन्तकाल तक उत्तरोत्तर अन्य अनन्त-पुदगलों के साथ सम्बद्ध होता हुआ और पुनः उसी परमाणु के साथ सम्बद्ध होकर पुनः चलित हो, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल का होता है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 886-887 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 7, पृ. 3325 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org