________________ पच्चीसवा शतक : उद्देशक 6] |26 उ. | गौतम ! वह जिनकल्प में भी होता है, स्थविरकल्प में भी और कल्पातीत में भी होता है। 27. नियंठे गं० पुच्छा। गोयमा ! नो जिणकप्पे होज्जा, नो थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा। [27 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में या कल्पातीत होता है ? [27 उ.] गौतम ! वह न तो जिनकल्प में होता है और न ही स्थविरकल्प में; किन्तु वह कल्पातीत होता है। 28. एवं सिणाए वि / [दारं 4] / [28] इसी प्रकार स्नातक के विषय में भी जानना चाहिए / चतुर्थ द्वार] विवेचन--स्थितकल्प और अस्थितकल्प ? क्या और किनमें कल्प कहते हैं--मर्यादा, अथवा साधना को मौलिक आचारसीमा को। ये कल्प शास्त्र में दस प्रकार के बताए हैं--(१) ग्राचेलक, (2) प्रौद्देशिक, (3) राजपिण्ड, (4) शय्यातर, (5) मासकल्प, (6) चातुर्मासिक, (7) व्रत, (8) प्रतिक्रमण, (6) कृतिकर्म और (10) पुरुष-ज्येष्ठ / प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु-साध्वी दस कल्प में स्थित होते हैं, क्योंकि इन दस कल्पों का पालन उनके लिए अनिवार्य होता है / इस कारण उनका कल्प स्थितकल्प कहलाता है। शेष 22 तीर्थकरों के शासन में अस्थितकल्प होता है / क्योंकि मध्यगत तीर्थंकरों के साधुवर्ग में अस्थितकल्प होता है, क्योंकि वे कभी कल्प में स्थित होते हैं, कभी नहीं होते, क्योंकि उपर्युक्त सभी कल्पों का पालन उनके लिए आवश्यक नहीं होता / उपर्युक्त दस कल्पों में से 4, 7, 9, 10 ये चार स्थितकल्प हैं और 1, 2, 3, 5, 6, 8 ये 6 कल्प अस्थिककल्प हैं / मध्यम के 22 तीर्थंकरों के साधुनों में अस्थितकल्य होता है / पुलाक आदि में दोनों प्रकार के कल्प होते हैं।' जिनकल्प, स्थविरकल्प और कल्पातीत क्या और किनमें ? -दुसरी अपेक्षा से कल्प के दो भेद किये गए हैं जिनकल्प और स्थविरकल्प / जिनकल्प का पालन करने वाले संघ में नहीं रहते, न ही किसी को दीक्षा देते या शिष्य बनाते हैं / वे एकाकी बन में या पर्वतीय गुफा आदि में रहते हैं, निर्भय, निर्द्वन्द्व और निश्चिन्त होते हैं। वे जघन्य दो और उत्कृष्ट 12 उपकरण रखते हैं / स्थविरकल्पी संघ में, उपाश्रयादि में रहते हैं, शिष्य बनाते हैं, दीक्षा देते हैं, साधु प्रायः कम से कम दो और साध्वी कम से कम तीन साथ-साथ विचरण करते हैं। वे शास्त्रोक्त मर्यादानुसार प्रमाणोपेत वस्त्र-पात्रादि रखते हैं / कल्पातीत वे होते हैं, जो इन दोनों से परे होते हैं / ऐसे कल्पातीत केवलज्ञानी, तीर्थकर, मन:पर्यवज्ञानो, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, श्रुतकेवली एवं जातिस्मरणशानी होते हैं / पुलाक तो केवल स्थविरकल्पी होते हैं, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों होते हैं / कषायकुशील जिनकल्पी, स्थविरकल्पी और कल्पातीत भी होते हैं / 1. (क) भगवती-उपक्रम, पृ. 604 (ख) भगवती. अ. बत्ति पत्र 194 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org