________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [417 समानता के कारण चारित्रपर्याय परस्पर 'तल्य' कहलाते हैं। और विशद्धतर पर्यायों के सम्बन्ध से 'अधिक' (चारित्रपर्याय) कहलाते हैं।' सजातीय चारित्रपर्यायों से षट्स्थानपतित : कैसे और क्यों ?–एक पुलाक, दूसरे पुलाक के साथ सजातीय चारित्र-पर्यायों से षट्स्थानपतित होता है। षट्स्थानहीन यथा-(१) अनन्तभागहीन (2) असंख्यातभागहीन, (3) संख्यातभागहीन, (4) संख्येयगुणहीन, (5) असंख्येय गुणहीन और (6) अनन्तगुणहीन / इसी प्रकार अधिक के भी षट्स्थानपतित होते हैं / यथा (1) अनन्तभाग-अधिक (2) असंख्यातभाग-अधिक, (3) संख्यातभाग-अधिक, (4) संख्येयगुण-अधिक, (5) असंख्येयगुणअधिक और (6) अनन्तगुण-अधिक / - इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--प्रत्येक चारित्र के अनन्त पर्याय होते हैं / एक ही चारित्र का पालन करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं / यथाख्यातचारित्र के सिवाय दूसरे चारित्र के पालन करने वाले साधुनों के परिणामों में समानता और असमानता--दोनों ही हो सकती है / असमानता के स्वरूप को समझाने के लिए षड्गुणहानि-वृद्धि की प्ररूपणा की गई है / यथा (1) अनन्तवाँ भाग-हीन-चारित्र पालने वाले दो साधुओं में एक के जो चारित्र-पर्याय हैं, उनके अनन्त विभाग किये जाएँ, उनसे दूसरे साधु के चारित्रपर्याय एक विभाग कम हैं तो वह कमी (न्यूनता) अनन्तवें भाग-हीन कहलाती है।। (2) असंख्यातवा भाग-हीन- इसी प्रकार चारित्रपालक दो साधुओं में से एक साधु के चारित्र के असंख्येय विभाग किए जाएँ, उससे यदि दूसरे साधुओं का चारित्र-पर्याय एक भाग कम हो तो वह कमी असंख्येयभाग-हीन मानी जाती है / (3) संख्यातवें भाग-हीन--उपर्युक्त रीति से एक मुनि के चारित्र के संख्यात भाग किये जाएँ, उससे दूसरे साधु का चारित्र एक भाग कम हो तो वह 'संख्यातवाँ भाग-हीन' कहलाता है / (4) संख्यातगुण-हीन--उपर्युक्त रीति से एक साधु के जितने चारित्र-पर्याय हैं, उनको संख्यातगुणा किया जाए, तब वह पहले साधु के बराबर हो सके तो उस दूसरे साधु का चारित्र संख्यातगुण-हीन होता है। (5) असंख्यातगुण-हीन—दो साधुओं में से दुसरे साधु के जितने चारित्र-पर्याय हैं , उन्हें असंख्यातगुणा किया जाए, तब वह पहले साधु के बराबर हो तो उसका चारित्र असंख्यातगुण-हीन कहा जाता है। (6) अनन्तगुण-हीन दो साधुओं में से दूसरे साधु के जितने चारित्र-पर्याय हैं, उनको मनन्तगुणा किया जाए, तब वह पहले साधु के बराबर हो, तो वह अनन्तमुण-हीन कहलाता है। इसी प्रकार वृद्धि (अधिक) के भी षट्स्थानपतित का क्रम समझना चाहिए / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 9.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org