________________ [व्याख्याप्रजप्तिसूत्र [1.50-1 रु.] गौतम ! वह जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक ( वर्द्धमानपरिणामी रहता है।) [2] केवतिवं कालं पट्टियपरिणामे होजा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वेसूणा पुज्य कोडी। [दारं 20] / [150-2 प्र. भगवन् ! स्नातक कितने काल तक अवस्थित-परिणामी रहता है ? [150-2 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटिवर्ष तक अवस्थित-परिणामी रहता है। [बीसवां द्वार] विवेचन परिणाम : प्रकार, स्वरूप मौर कालावधि-चारित्रसम्बन्धी भावों को यहाँ 'परिणाम' कहा गया है / वे तीन प्रकार के माने जाते हैं--(१) वर्द्धमानपरिणाम, (2) हीयमानपरिणाम और (3) अवस्थितपरिणाम। वर्द्धमानपरिणाम का अर्थ है संयमशुद्धि की उत्कर्षता (वृद्धि) होना! हीयमानपरिणाम का प्राशय है-संयमशुद्धि की अपकर्षता (हीनता) होना और अवस्थितपरिणाम उसे कहते हैं, जिसमें संयमशुद्धि स्थिर रहे, उसमें न्यूनाधिकता (घट-बढ़) न हो। पुलाक से लेकर कषाय कुशील तक तीनों ही प्रकार के परिणाम पाए जाते हैं / निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों हीयमानपरिणाम वाले नहीं होते। निग्रंथ के परिणामों में हीनता आती है तो वह 'कषायकुशील' कहलाता है / स्नातक के परिणामों में हीनता होने का कारण ही नहीं है, क्योकि वहाँ राग, द्वेष, मोह और घातिकर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है / पूलाक के परिणाम वद्धिंगत हो रहे हों, तब यदि वे कषाय से बाधित हो जाएँ तो वह एकादि समय तक वर्द्धमानपरिणाम का अनुभव करता है, इसलिए उसका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त होता है। इसी प्रकार बकुश, प्रतिसेवनाकुशील एवं कषाय कुशील के विषय में समझना चाहिए | बकशादि के जघन्य एक समय बर्द्धमानपरिणाम मरण की अपेक्षा भी घटित हो सकते हैं. लेकिन पलाकपने में मरण नहीं होता / मरण के समय पलाक, कषायकशीलादि रूप में परिणत हो जाता है। पूर्वसूत्र में पुलाक के मरण का कथन किया, वह भुतभाव की अपेक्षा से समझना चाहिए / निग्रंथ जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमानपरिणाम वाला होता है, जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब उसके परिणामान्तर हो जाते हैं। निर्ग्रन्थ के अवस्थितपरिणाम जघन्य एक समय, मरण की अपेक्षा घटिल हो सकते हैं / स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमहतं तक वर्द्धमानपरिणाम वाला होता है, क्योंकि शैलेशी अवस्था में वर्द्धमानपरिणाम अन्तर्महतं तक होते हैं / स्नातक के अवस्थितपरिणाम का काल भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद वह अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित परि. णाम वाला होकर फिर शैलेशी अवस्था को स्वीकार करता है, इस अपेक्षा से यह काल घटित हो सकता है / अवस्थितपरिणाम का उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिवर्ष इसलिए होता है कि पूर्वकोटिवर्ष की आयुवाले पुरुष को जन्म से जघन्य नौ वर्ष बीत जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न हो तो नौ वर्ष न्यून Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org