________________ पच्चीसा शनक : उशक 6) 65. एवं जाव सिणायस्स / [95] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) यावत् स्नातक तक कहना चाहिए। विवेचन-चारित्र-पर्याय : क्या और कितने ? चारित्र अर्थात् सर्वविरतिरूप परिणाम, उसके पर्यव या पर्याय अर्थात् तरतमताजनित भेद या अंश को चारित्र-पर्याय कहते हैं। वे बुद्धिकृत या विषयकृत अविभागपरिच्छेद रूप (जिसके फिर विभाग न हो सक) होते हैं। ऐसे चारित्र-पर्याय अनन्त होते हैं / पुलाक से स्नातक तक के चारित्र-पर्याय अनन्त होते हैं / पंचविध निर्ग्रन्थों के स्व-पर-स्थान-सन्निकर्ष चारित्रपर्यायों से हीनत्वादि प्ररूपणा 66. पुलाए णं भंते ! पुलागस्स सटाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे, तुल्ले, अब्भहिए ? गोयमा ! सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अभहिए / जदि होणे अणंतभागहोणे वा असंखेज्जतिभागहोणे वा, संखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोणे वा, अणंतगुणहोणे वा / अह अन्भहिए अणंतभागमभहिए वा, असंखेज्जतिभागमभहिए वा, संखेज्जलिभागमभहिए वा, संखेज्जगुणमन्भहिए वा, असंखेज्जगुणमन्भहिए वा, अणंतगुणमब्भहिए वा। [96 प्र.] भगवन् ! एक पुलाक, दूसरे पुलाक के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? / . [96 उ.] गौतम ! वह कदाचित् हीन होता है, कदाचित् तुल्य और कदाचित अधिक होता है / यदि हीन हो तो अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन तथा संख्यातभागहीन होता है एवं संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन होता है। यदि अधिक हो तो अनन्तभाग-अधिक असंख्यातभाग अधिक और संख्यातभाग-प्रधिक होता है, तथैव संख्यातगुण अधिक, असंख्यातगुण-अधिक और अनन्तगुण-अधिक होता है / 17. पुलाए गं भंते ! बउसस्स परटुरणसग्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे, तुल्ले, अभहिए ? गोयमा ! होणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए; अणंतगुणहोणे / [67 प्र.] भगवन् ! पलाक अपने चारित्र-पर्यायों से, बकुश के परस्थान-सन्निकर्ष (विजातीय चारित्र-पर्यायों के परस्पर संयोजन) की अपेक्षा हीन हैं, तुल्य हैं या अधिक हैं ? [97 उ.] गौतम ! वे हीन होते हैं, तुल्य या अधिक नहीं होते / अनन्तगुणहीन होते हैं / 68. एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि / [98] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में कहना चाहिए। 66. कसायकुसीलेण समं अट्ठाणपडिए जहेब सट्ठाणे। [99] कषायकशील से पुलाक के स्वस्थान के समान षस्थानपतित कहना चाहिए / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 900 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org