________________ 414) [व्यास्याप्रप्तिसूत्र 100. नियंठस्स जहा बउसस्स। |100] बकुश के समान निर्ग्रन्थ के विषय में भी कहना चाहिए / 101. एवं सिणायस्स वि / [101] स्नातक का कथन भी बकुश के समान है / 102. बउसे गं भंते ! पुलागस्स पराणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि किं होणे, तुल्ले, अब्भहिए? गोयमा ! नो होणे, नो तुल्ले, अमहिए; प्रगतगुणमभहिए। [102 प्र. भगवन् ! बकुश, पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों की अपेक्षा हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [102 उ.] गौतम ? वह हीन भी नहीं और तुल्य भी नहीं; किन्तु अधिक है; अनन्तगुणअधिक है। 103. बउसे णं भंते ! बउसस्स सटाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं० पुच्छा। गोयमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए / जदि होणे छट्ठाणवडिए / [103 प्र.] भगवन् ! बकुश, दूसरे बकुश के स्वस्थान-सन्निकर्ष से (सजातीय-पर्यायों से) चारित्रपर्यायों ( की अपेक्षा ) से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [103 उ. | गौतम वह कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि हीन हो तो (' यावत् ) षट्स्थान-पतित होता है। 104. बउसे गं भंते ! पडिसेवणाकुसोलस्स परट्ठाणसग्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे० ? छट्ठाणवडिए। [104 प्र.] भगवन् ! बकुश, प्रतिसेवनाकुशील के परस्थान-सन्निकर्ष से, चारित्र-पर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [104 उ.] गौतम ! वह षट्स्थानपतित होता है। 105. एवं कसायकुसीलस्स वि। [105] इसी प्रकार कषायकुशील की अपेक्षा से भी जान लेना चाहिए। 106. बउसे गं भंते ! नियंठस्स परढाणसन्निकासेणं चरित्तपज्जवेहि पुच्छा। गोयमा ! होणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए; अणंतगुणहीणे। [106 प्र.! भगवन् ! बकुश निर्ग्रन्थ के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक होते हैं ? 106 उ.] गौतम ! वे हीन होते हैं, न तो तुल्य होते हैं और न अधिक होते हैं / अनन्तगुण-हीन होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org