________________ 410] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 83 उ.] गौतम ! अविराधना को अपेक्षा वह इन्द्ररूप में यावत् लोकपालरूप में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु (एकमात्र) अहमिन्द्र रूप में उत्पन्न होता है / विराधना की अपेक्षा वह किसी भी देवरूप में उत्पन्न होता है। 84. पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं पलियोवमपुहत्तं, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई / [84 प्र.] भगवन् ! देवलोकों में उत्पन्न होते हुए पुलाक की स्थिति कितने काल की कही है ? 84 उ.] गौतम ! पुलाक की स्थिति जघन्य पल्योपमपृथक्त्व को और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम की है। 85. बउसस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं पलियोवमपुहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं। [85 प्र.] भगवन् ! (देवलोक में उत्पन्न होते हुए) बकुश की स्थिति कितने काल की कही है ? [85 उ.] गौतम ! बकुश की स्थिति जघन्य पल्योपमपृथक्त्व की और उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है। 86. एवं पडिसेवणाकुसोलस्स वि। [86] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में जानना / 87. कसायकुसीलस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं पलियोवमपुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। [87 प्र.] भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए कषायकुशील की स्थिति कितने काल की है ? [87 उ.] गौतम ! उसकी स्थिति जघन्य पल्योपमपृथक्त्व की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। 88. णियंठस्स० पुच्छा। गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोसेणा तेत्तीसं सागरोवमाई। [दारं 13] / [88 प्र.] भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए निर्ग्रन्थ की स्थिति कितने काल की होती है ? [88 उ.] गोतम ! उसकी स्थिति अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है / [तेरहवाँ द्वार] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org