________________ पच्चीसवा शतक : उद्देशक 6] 6. नियंठे भंते ! कतिविधे पन्नते? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-पढमसमयनियंठे अपढमसमयनियंठे चरिमसमयनियंठे प्रचरिमसमयनियंठे अहासुहुमनियंठे णामं पंचमे / [6 प्र. भगवन् ! निम्रन्थ कितने प्रकार के कहे है ? [6 उ.} गौतम ! वे पाँच प्रकार के कहे हैं / यथा---(१) प्रथम-समय-निम्रन्थ, (2) अप्रथमसमय-निर्गन्थ, (3) चरम-समग-निग्रंथ (4) अचरम-समय-निर्ग्रन्थ और पांचवें (5) यथासूक्ष्मनिर्गन्थ / 10. सिणाए गं भंते ! कतिविधे पन्नते ? गोयमा ! पंचविधे पन्नते, तं जहा-अच्छवी 1 असबले 2 अकम्मसे 3 संसुद्धनाण-वंसणधरे अरहा जिणे केवली 4 अपरिस्सावी 5 / [दारं 1] / [10 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने प्रकार के कहे हैं ? 10 उ.] गौतम ! स्नातक पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-(१) अच्छवि, (2) असबल, (3) अकर्माश, (4) संशुद्ध-ज्ञान-दर्शनधर प्रहन्त जिन केवली एवं (5) अपरिस्रावी / / द्विार-१] विवेचन-निग्नन्थ : प्रकार स्वरूप और भेद---सभी निग्नन्थ यद्यपि सर्वविरति चारित्र अंगीकार किये हुए होते हैं, तथापि चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम की विभिन्नता-विचित्रता के कारण निम्रन्थ के मूलतः 5 प्रकार होते हैं / यथा -पुलाक, बकुश, कुशील, निम्रन्थ और स्नातक / पुलाक का लक्षण–पुलाक का अर्थ है निःसार धान्यकण / पुलाक की तरह संयम-साररहित को यहाँ पुलाकश्रमण कहा जाता है। संयमवान् होते हुए भी वह किसी छोटे-से दोष के कारण संयम को किंचित असार कर देता है, इस कारण वह पुलाक कहलाता है। पूलाक के मुख्यतया दो भेद हैंलब्धिपुलाक और आसेवनापुलाक। लब्धिपुलाक लब्धिविशेष का धनी होता है। संघ आदि के विशेष कार्य के निमित्त से अथवा कोई चक्रवर्ती आदि जिनशासन तथा साधु-साध्वियों की प्राशातना करे, ऐसी स्थिति में उसकी सेना आदि को दण्ड देने हेतु लब्धिप्रयोग करे, वह लब्धिपुलाक कहलाता है। कुछ प्राचार्यों का मत है कि जो ज्ञानपुलाक होता है, उसी को ऐसी लब्धि होती है, अतः वही लब्धिपुलाक होता है। उसके सिवाय अन्य कोई लब्धिपुलाक नहीं होता / परन्तु यहाँ मूल में प्रासेवनापुलाक के ही भेदों का प्रतिपादन किया गया है / ज्ञानपुलाक वह है, जो स्खलना, विस्मरणा, विराधना, आशातना आदि दूषणों से ज्ञान की किचित् विराधना करता है / दर्शनपुलाक वह है, जो शंकादि दूषणों से सम्यक्त्व की विराधना करता है। मूल-उत्तर-गुण की विराधना से जो चारित्र को दूषित करता है, वह चारित्रपुलाक कहलाता है। जो साधक अकारण ही अन्य लिंग धारण कर लेता है, वह लिंगपुलाक है। जो साधक आकल्पित सेवन करने के अयोग्य दोषों का मन से सेवन करता है, वह यथासूक्ष्मपुलाक कहलाता है / यहाँ पुलाक साधक संयम को निस्सार कर देता है, वह समय की अपेक्षा से थोड़े समय के लिए करता है। बकुश का लक्षण-बकुश कहते हैं शबल या कर्बु र, अर्थात् चितकबरे को। बकुश की तरह संयम भी जिसका चितकबरा हो गया हो। इसके मुख्यतया दो भेद हैं-उपकरणबकुश और शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org